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जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व
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मूर्च्छा और वस्तुओं की आसक्ति के कारण वह महापरिग्रही है। दशवैकालिक में भी कहा है कि जो सदा संग्रह की भावना रखता है, वह साधु नहीं (साधु के वेष में) गृहस्थ है । 194
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अतः, जैन- दृष्टि से केवल बाह्य परिग्रह का परित्याग ही प्रमुख नहीं है, प्रमुख है- आभ्यन्तर - परिग्रह का परित्याग । जब तक आसक्ति नहीं मिटती, वहाँ तक बाह्य-परिग्रह का परित्याग करके भी आभ्यन्तर—परिग्रह विद्यमान है, तो बाह्य - परिग्रह स्वतः आ जाएगा । परिग्रह बहुत बड़ा पाप है। विश्व में जितनी हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील आदि की प्रवृत्तियाँ देखी जाती हैं, उन सबके मूल में परिग्रह ही है ।
बाह्य-परिग्रह, जैसे— धन, वस्तु आदि केवल विनिमय या कृत्रिम साधन हैं, अथवा आवश्यकता - पूर्ति के माध्यम हैं। वस्तुतः, वस्तु स्वयं में कोई परिग्रह नहीं, किन्तु उसके ग्रहण का भाव और संग्रह की इच्छा परिग्रह है। यदि पर - पदार्थों के ग्रहण व संग्रह की भावना नहीं है, केवल पर पदार्थ की उपस्थिति है, तो वह परिग्रह नहीं है, जैसे- तीर्थंकर, इसलिए भगवान् महावीर ने तथा जैनशास्त्रों में मूर्च्छा को परिग्रह कहा है और मूर्च्छा-त्याग को अपरिग्रह 1495
2. वस्तु के त्याग एवं दान की भावना का विकास
आचार्य अकलंक496 ने सचेतन और अचेतन परिग्रह से निवृत्ति को ही त्याग माना है। जितने भी मोक्ष के साधन हैं, उनमें त्याग को सर्वोत्तम साधन माना है।497 राग में दुःख और त्याग में सुख है। आचार्य कुन्दकुन्द ने कहा है अपने से भिन्न सभी पदार्थ पर हैं, इसलिए वस्तु के इस स्वरूप को जानकर, जब त्याग किया जाता है, तब वह प्रत्याख्यान (त्याग)
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पुरुषार्थसिद्धयुपाय, आ. विशुद्धसागरजी मुनि, गाथा 113, पृ. 303
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जे सिया सन्निहिं कामें, गिही पव्वइए न से। - दशवैकालिकसूत्र-6/18 क) दशवैकालिक - 6/20 (ख) मूर्च्छा परिग्रहः – तत्त्वार्थसूत्र - 7/12 ग) 'मूर्च्छा परिग्रहः' इति सूत्रं यथाध्यात्मानुसारेग मूर्च्छारूपरागादि परिणामानुसारेण परिग्रहो भवति, न च बहिरंगपरिग्रहानुसारेण ।
- प्रवचनसारतात्पर्यवृत्ति टीका, गाथा 278 घ) मूर्च्छा तु ममत्वपरिणामः । - पुरूषार्थसिद्धयुपाय, छन्द 111 ण) मभेदमिति संकल्प परिग्रहः । - सर्वार्थसिद्धि, अ. 7 सूत्र 17
496 परिग्रहस्य चेतनाचेतनलक्ष्णस्य निवृत्तित्यागः इति निश्चीयते । - तत्त्वार्थराजवार्तिक, अ. 9, सू.6 त्याग एव सर्वेषां मोक्ष साधनमुत्तमम् – अणु से पूर्ण की यात्रा, पृ. 151
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