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जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व
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जीवों का वध- इन चारों में से किसी भी एक के होने पर भी जीव नरकायु उपार्जित करता है, दूसरे शब्दों में, अतिआरम्भ एवं अतिपरिग्रह के कारण नरकायु का बंध करता है, इसलिए धन, धान्य आदि पर मूर्छाममता रूप परिग्रह का त्याग करना चाहिए।
परिग्रह-वृत्ति के नियंत्रण के उपाय - 1. इच्छा/मूर्छा/आसक्ति का त्याग करें -
भगवतीसूत्र में कहा गया है -"जब तक राग (इच्छा), मोह और लोभ (मूर्छा/आसक्ति) मन में उत्पन्न होते हैं, तब तक ही आत्मा में बाह्य परिग्रह ग्रहण करने की बद्धि होती है।''
अतः, जब तक इच्छा को समाप्त नहीं करेंगे, तब तक अपरिग्रह के सिद्धान्त का प्रतिफलन संभव नहीं है। अर्थ या पदार्थों का संग्रह ही परिग्रह नहीं है, मूर्छा-ममता भी परिग्रह हैं। इच्छाओं को न तो दबाना है, न उन्हें अनियंत्रित छोड़ना है। अगर इच्छाओं को दबाया जाए, तो कभी भी अवसर पाकर वे और भी उग्रता से जाग्रत होंगी, इसलिए उन्हें समझकर ही शमित करना चाहिए। आकांक्षाओं का विवेकपूर्ण शमन हो, तो निश्चय ही वे कभी भी नहीं उभरेंगी, इसलिए आचारांगसूत्र में कहा गया है- "जो परिग्रह की बुद्धि का त्याग करता है, वह परिग्रह का त्याग करता है।"492 यह मेरा हैऐसी भावना प्राणियों और पदार्थों के प्रति होती है, जैसे – मेरी माता, मेरे पिता, मेरा घर, मेरी भूमि। जो व्यक्ति बुद्धिगत ममत्व को छोड़ देता है, वही वास्तव में अपरिग्रही है। भरत चक्रवर्ती छह खण्डों के अधिपति थे, किन्तु शीशमहल में पहुंचकर उन्होंने ममत्वबुद्धि का परित्याग कर दिया। छह खण्ड की सम्पत्ति होते हुए भी वे अपरिग्रही थे। समवसरण में विराजमान तीर्थंकर परमात्मा की रिद्धि के परिग्रह के आगे तो संसार के सभी परिग्रह फीके हैं, परन्तु कषाय . ओर मूर्छा नहीं होने के कारण उनके लिए परिग्रहरूप नहीं हैं। पुरुषार्थसिद्धयुपाय में अमृतचन्द्र स्वामी कहते हैं कि केवल बाह्य वस्तुओं के त्याग को ही अपरिग्रह मानते हैं, तो जिसके पास कुछ नहीं, वे तो सदा अपरिग्रही रहेंगे, जैसे- भिखारी, पर उसकी इच्छा,
___महापोत इव प्राणी त्यजेतस्मात् परिग्रहम् ।। - योगशास्त्र-2/107 491 "रागो लोभो मोहो सण्णाओ गारवाणि य उदिण्णा तो तइया धत्तं जे गंधे
बुद्धी परो कुणह।" - भगवती आराधना 19/2 492 आचारांग चूर्णि, पृ. 92
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