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जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व
बढ़ा रही है। प्रकृति के सारे संसाधनों का भोग हम ही कर लेंगे, भले ही हमारी भावी पीढ़ी भूखों मरे । 'यूज एंड थ्रो' संस्कृति का यही परिणाम होगा। अगर गहराई से चिन्तन करें, तो इस सबके मूल में परिग्रह और वृत्त
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जैनदर्शन में परिग्रहवृत्ति के नियंत्रण के उपाय- परिग्रहपरिमाण-व्रत
वर्तमान सन्दर्भ में आर्थिक समस्याएँ बलवती हैं। मानव व्यक्तित्व का मापन भी आर्थिक आधार पर किया जाता है। जिसके पास जितना अधिक पैसा है, वह उतना ही बड़ा आदमी माना जाता है, भले ही वह मन, वचन एवं कर्म से छोटा हो, किन्तु जिसके पास पैसा नहीं है, जो आर्थिक दृष्टि से कमजोर है, वह आज के समाज में कोई स्थान नहीं रखता, चाहे वह कितना ही विचारशील, चिन्तनशील एवं वचन का धनी हो । यही कारण है कि आर्थिक-संघर्ष के भयंकर परिणाम सामने आ रहे हैं। जिस प्रकार आकाश का कोई ओर-छोर नहीं होता, उसी प्रकार मानव की इच्छाओं का भी कोई अन्त नही होता, क्योंकि परिग्रह का मूल इच्छा (आसक्ति) है। 488
परिग्रह के मूल में कामना होती है और कामना ही दुःख का कारण है – “कामे कामहि कमियं खु दुक्खं । 489 कामनाओं का आकाश अनंत है । यदि मनुष्य अपनी सभी परिगृहीत वस्तुओं का त्याग भी कर दे, तो भी वह पूर्णतः अपरिग्रही नहीं बन सकता, इसीलिए मूर्च्छा या आसक्ति को परिग्रह का सार माना गया है। वस्तुओं के प्रति आसक्ति हमें बार-बार उन्हें ग्रहण करने के लिए बाध्य करती हैं। जब तक यह आसक्ति या मूर्च्छा नहीं जाती है, अपरिग्रह असंभव है । जैसे 'अमर्यादित धन, धान्य, कीमती सामान आदि से भरा हुआ जहाज अत्यधिक भार हो जाने से समुद्र में डूब जाता है, वैसे ही जीव भी अगर धन, धान्य, घर, मकान, जमीन-जायदाद व खेत आदि वस्तुएँ अमर्यादित यानी आवश्यकता की सीमा से अधिक रखता है, तो वह भी उस परिग्रह के बोझ से दबकर नरक आदि दुर्गतियों में डूब जाता है । कहा भी गया है - महारम्भ, महापरिग्रह, मांसाहार और पंचेन्द्रिय
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488 महानिद्देसपालि 489 दशवैकालिकसूत्र - 2/5
490 परिग्रहमहत्वाद्धि मज्जत्येव भवाम्बुधौ ।
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