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जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व
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विज्ञापनों के माध्यम से उपभोक्ताओं को सम्मोहित किया जाता है। एडवरटाइजमेंट {Advertisement} की कला सम्मोहन पर खड़ी है। रोज रेडियो, टी.वी., अखबार, पत्र-पत्रिकाओं और सड़कों पर लगे बड़े-बड़े पोस्टर आधुनिक वस्तुओं के प्रति सम्मोहित करते हैं और व्यक्ति सरलता से उन वस्तुओं के प्रति आकर्षित हो जाता है। वास्तव में, विज्ञापनों के माध्यम से मात्र गुणवत्ता का ही बखान किया जाता है, उसके दोषों को उजागर नहीं किया जाता, पर वस्तुओं के प्रति सम्मोहित हुआ व्यक्ति अपनी जरूरत, जेब और जग, जहान और जीवन के लाभ हानि की चिन्ता न करते हुए नाना प्रकार की वस्तुओं को खरीदता है, भोगता है और जी भर जाने पर उन्हें फेंककर वातावरण को दूषित करता है। आर्थिक रूप से कमजोर व्यक्ति, जो ऐसा नहीं कर पाते, वे हीनभावना से ग्रसित होकर एक विषादपूर्ण जीवन व्यतीत करते हैं और उसकी पूर्ति हेतु नाना प्रकार के आर्थिक अपराधों में लिप्त होने को बाध्य होते हैं।
9. प्रदूषण -
वर्तमान में विज्ञापन और उपभोक्ता-संस्कृति के कारण अरबों रुपयों वाले अनेक नए-नए उध्योग और सेवाएं संचालित हैं। अर्थशास्त्री इसे आर्थिक विकास का सूचक मानते हैं, किन्तु इस अतिभोगवादी संस्कृति के भावी दुष्परिणामों का चिन्तन करने वाले कम ही रह गए हैं, क्योंकि विकास की तात्कालिक चमक-दमक तो सबको नजर आती है, किन्तु भोगवादी संस्कृति के मूल में निहित आर्थिक, सामाजिक और प्राकृतिकअसन्तुलन किसी को दिखाई नहीं देता। विषाक्त औद्योगिक-कचरा और शहरों में बढ़ते हुए कूड़े के ढेर भी लोगों को सावधान नहीं करते।
__ अधिक भोग का अर्थ है- अधिक उत्पादन। अधिक उत्पादन के लिए प्राकृतिक संसाधनों का अधिकाधिक दोहन और ऊर्जा की अधिक खपत। परिणाम- प्राकृतिक असन्तुलन और प्रदूषण। सिकुड़ते जंगल, वातावरण में कार्बन डाई ऑक्साइड की बढ़ती हुई मात्रा, परमाणु रिएक्टरों से फैलता हुआ रेडियाधर्मी विकिरण आज वैज्ञानिकों की चिन्ता के विषय बन गए हैं। इसी के परिणामस्वरूप, हमारे ग्रह का बढ़ता हुआ तापमान, विभिन्न प्रकार की प्राकृतिक आपदाएँ और नाना प्रकार के असाध्य रोग खतरे की घंटी बजा रहे हैं। यदि हालात नहीं बदले, तो इक्कीसवीं सदी के मध्य तक भीषण प्राकृतिक विप्लव की आशंका वैज्ञानिकों को हो रही है। उपभोक्ता संस्कृति शनैः-शनैः आत्मघाती विनाश की ओर अपने कदम
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