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जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व
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संकल्पबद्ध होकर कम-से-कम वस्तुओं के प्रयोग से जीवन-निर्वाह का अभ्यास किया जाना चाहिए। जैन कषायों में पुणिया श्रावक अपरिग्रह संस्कृति का आदर्श चरित्र है। वह दिन-भर रूई से पोनियां बनाता है और उन्हें बेचकर जितना धन प्राप्त होता है, उसी में अपने परिवार का पालन-पोषण करते हुए सन्तुष्ट रहता है। महात्मा कबीरदास भी ऐसे ही अपरिग्रही थे। पुणिया श्रावक की तरह वे भी कपड़ा बुनकर अपने परिवार का पालन-पोषण करते और ईश्वर की भक्ति में मस्त रहते। वे कहते थे
सांई इतना दीजिए, जामें कुटुम्ब समाय। मैं भी भूखा ना रहूँ, साधु न भूखा जाय।।
इच्छाओं का परिसीमन करते हुए कबीरदासजी ने अपना जीवन फकीरी में लगा दिया। इसी फकीरी में ही उन्हें अनुपम सुख की अनुभूति होती थी। कहा भी है
चाह मिटी चिन्ता गई, मनुवा भया बेपरवाह। जिन्हें कछ न चाहिए, वे शाहो के शहनशाह ।।
आधुनिक युग में महात्मा गांधी ने भी कम-से-कम वस्तुओं का प्रयोग करते हुए सादगी और सदाचार की साधना की और जीवन पर्यन्त वे सत्य, अहिंसा और अपरिग्रह के प्रयोग करते रहे।
"संतोषी व्यक्ति के लिए संसार के वैभव तिनके के समान दिखाई देते हैं। जिसके पास संतोषरूपी आभूषण है, समझ लो, पद्म आदि नौ निधियाँ उसके हाथ में है। कामधेनु गाय तो उसके पीछे-पीछे फिरती है
और देवता भी दास बनकर उसकी सेवा करते हैं।"511 "असंतोषी मनुष्य, चाहे वह इन्द्र महाराज और चक्रवर्ती ही हो, उसे जो सुख प्राप्त नहीं होता, वह सुख संतोषी मनुष्य को प्राप्त होता है, जैसे- अभयकुमार ने राजपाट को त्यागकर भगवान् महावीर के पास दीक्षा अंगीकार की। सुखप्रदायक, संतोष के धारक अभयकुमार मुनि आयुष्य पूर्ण करके सर्वार्थसिद्धि नामक देवलोक में गए। इस प्रकार, संतोषसुख का आलम्बन लेने वाला अन्य
511 सन्निधौ निधयस्तस्य कामगव्यनुगामिनी
अमराः किंकरायन्ते संतोषो यस्य भूषणम् – योगशास्त्र , 1/115
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