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जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व
घर में भाई-भाई में, पड़ोसी - पड़ोसी में तथा राष्ट्रों के बीच तनाव और वैमनस्य बना रहता है । सर्वत्र दंगे और फसाद होते ही रहते हैं । न्यायालयों में अभी जितने अभियोग विचाराधीन हैं, उसमें से अधिकांश के मूल में परिग्रह ही है। अस्त्र-शस्त्रों का परिग्रह युद्ध का मूल कारण है। देश की सुरक्षा और शान्ति के लिए शस्त्र रखे जाते हैं, परन्तु शस्त्रों की संग्रहवृत्ति की प्रतिस्पर्धा इतनी बढ़ गई है कि संपूर्ण पृथ्वी बारूद के ढेर पर टिकी है, किसी भी राष्ट्र ने अपने शस्त्रों के भण्डार का प्रयोग किया, तो कुछ ही समय में संपूर्ण सृष्टि नष्ट हो सकती है। हिटलर, नेपोलियन, मुसोलिनी ने साम्राज्य लिप्सा के कारण युद्ध किया। इसके कारण यूरोप और रूस की भूमि रक्तरंजित हुई, भीषण नरसंहार हुआ, लाखों बच्चे अनाथ हुए, लाखों नारियों की मांग का सिन्दूर मिट गया, लाखों निरपराध व्यक्ति बिना मौत मारे गए, अरबों की सम्पत्ति स्वाहा हो गई। बमों द्वारा मानव - संहार का कैसा वीभत्स दृश्य उपस्थित हो गया? अगर मूल में देखा जाए, तो संचयवृत्ति की चाह और परिग्रह के कारण ही महायुद्ध हुए ।
6. परिग्रह के कारण भोगवृत्ति बढ़ना
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सुख (भोग) का अर्थी संग्रह में प्रवृत्त होता है । जो सुख का अर्थी होता है, वह बार-बार सुख की कामना करता है। इस प्रकार, वह अपने द्वारा कृत कामना की व्यथा से मूढ होकर विपर्यास को प्राप्त होता है । सुख का अर्थी होकर दुःख को प्राप्त होता है। भूख से कोई न मरे, इस व्यवस्था में वर्त्तमान युग सफल हुआ है, किन्तु मुट्ठीभर लोगों के संग्रह ने असंख्य लोगों को गरीबी का जीवन जीने के लिए विवश कर दिया है। दूसरी समस्या यह है कि अतिसंग्रह वाले भोगविलास एवं ऐशो-आराम का जीवन व्यतीत कर रहे हैं, किन्तु दिनों-दिन अति सम्पन्न लोग ही मानसिक तनाव, भय और आतंक का जीवन जी रहे हैं। धर्म उनके जीवन से खत्म होता जा रहा है और भोग-विलास में उनका समय अधिक व्यतीत हो रहा है। "जिंस प्रकार सम्पत्तिशाली व्यक्ति को जंगल में चोर लूट लेते हैं, उसी प्रकार संसाररूपी अरण्य में प्राणी को शब्दादि - विषयरूपी लुटेरे संयमरूपी सर्वस्व लूटकर भिखारी बना देते हैं। इसी तरह, आग लगने पर अधिक परिग्रह वाला भागकर झटपट निकल नहीं सकता, वैसे ही संसाररूपी अटवी में रहे हुए पुरुष को कामरूपी अग्नि जला देती है । स्त्रीरूपी शिकारी उसे संसार की मोहमाया के जाल में फंसा लेती हैं, उस
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सुहट्टी लालप्पमाणे सएण दुक्खेण मूढे विप्परियासमुवेदि । आचारांगसूत्र - 2 / 6'151
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