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________________ 256 जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व 4. वर्ग-संघर्ष आर्थिक विकास के सारे प्रयत्न केवल इच्छापूर्ति के लिए, या केवल विलासिता के लिए नहीं होते। जो मनुष्य आर्थिक विकास करता है, उसका एक दृष्टिकोण होता है- सुविधा। व्यक्ति को सुविधा चाहिए, इसलिए वह अर्थ का संग्रह करता है। इस कारण, समाज तीन वर्गों में बंट जाता है- 1. अमीर-वर्ग, 2. मध्यम-वर्ग, 3. सामान्य वर्ग। अमीर-वर्ग के लोग अपनी सुखसुविधा के लिए आलीशान बंगले, गाड़ी, आभूषण आदि के लिए धन का संचय करते हैं। मध्यम वर्ग के व्यक्ति अपना स्तर सुधारने के प्रयास से धन के संचय में रत रहते हैं, वहीं गरीब/ सामान्य लोगों की आवश्यकता मात्र रोटी, कपड़ा और मकान तक ही सीमित हो जाती है। वे आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए अर्थ का प्रयोग करते हैं। ... वस्तुतः देखा जाए, तो आर्थिक-विषमता का मूल कारण संग्रह-भावना ही है। यह कहा जाता है कि अभाव के कारण संग्रह की चाह उत्पन्न होती है, लेकिन वस्तुस्थिति कुछ और ही है। जीवन जीने के लिए अभावों की पूर्ति सम्भव है, लेकिन कृत्रिम अभाव की पूर्ति संभव नहीं। उपाध्याय अमरमुनिजी लिखते हैं -गरीबी स्वयं में कोई समस्या नहीं, किन्तु अमीरों ने उसे समस्या बना दिया है। गड्ढा स्वयं में कोई समस्या नहीं है, किन्तु पहाड़ों की असीम ऊँचाईयों ने इस धरती पर जगह-जगह गड्ढे पैदा कर दिए हैं। पहाड़ टूटेंगे, तो गड्ढे अपने-आप भर जाएंगे। सम्पत्ति का विसर्जन होगा, तो गरीबी अपने-आप दूर हो जाएगी। 485 वस्तुतः, आवश्यकता इस बात की है कि व्यक्ति में परिग्रह के विसर्जन की भावना उद्भूत हो। परिग्रह के विसर्जन से ही वर्गसंघर्ष समाप्त हो सकता है। जब तक संग्रहवृत्ति समाप्त नही होती, आर्थिक-समानता नहीं आ सकती है। 5. युद्ध का कारण - परिग्रह - आज विश्व के चारों ओर जो अशान्ति के बादल मंडरा रहे हैं और मनुष्य-मनुष्य के बीच जो बैर-विरोध बढ़ रहा है, यदि उसके कारणों पर गंभीरतापूर्वक विचार किया जाए, तो मूल में परिग्रह और अनन्त इच्छाएँ हैं। व्यक्ति अपने मात्र साढ़े तीन हाथ के शरीर की सुविधा के लिए दुनियाभर के परिग्रह को अपने घर में जमा करता है। आज देखा जाता है कि हर 485 जैनप्रकाश , 8 अप्रैल 1969, पृ. 11 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004097
Book TitleJain Darshan me Vyavahar ke Prerak Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages580
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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