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जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व
से लीपकर छिपाता है। धन के लिए वह अनेक कृत्य करता है। रिश्वत लेना या देना, झूठी साक्षी देना या दिलाना, झूठ बोलना इत्यादि कृत्य परिग्रह के लिए किए जाते हैं। योगशास्त्र 481 में कहा गया है दुःख के कारणरूप असंतोष, अविश्वास और आरम्भ को भी परिग्रहवृत्ति का फल मानकर परिग्रह पर नियंत्रण करना चाहिए। समयसार 182 मे भी परिग्रह को बंध का कारण माना है ।
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3. संचयवृत्ति - एक सामाजिक अपराध
धन से जहां तक हमारी आवश्यकताओं की पूर्ति होती हो, उसी सीमा तक वह हमारे लिए उपयोगी है। इसी प्रकार, आवश्यकता से अधिक धन का भी कोई उपयोग नहीं है। कौटिल्य ने अपने अर्थशास्त्र में उतनी ही सम्पत्ति संकलित करने को उचित ठहराया है, जितने से हमारे सांसारिक दायित्वों का भली प्रकार से निर्वाह हो सके। अधिक परिग्रह और वस्तुओं का अधिक मात्रा में संचय एक सामाजिक- अपराध माना गया है। महाभारत में कहा गया है – “जहाँ तक उदरपूर्ति का प्रश्न है, या दैहिक आवश्यकता की पूर्ति का प्रश्न है, वहाँ पदार्थों के उपभोग का अधिकार प्रत्येक व्यक्ति को है, लेकिन जो आवश्यकता से अधिक का संचय करता है, वह चोर है। 183 दूसरे प्राणियों को उपभोग से वंचित करके जो संग्रह करता है, वह अनैतिक है, सामाजिक - अपराध है, क्योंकि उसमें कहीं-न-कहीं हिंसा का भाव और परिग्रह की वृत्ति जुड़ी हुई है। जैन - मनोवैज्ञानिकों का कहना है कि आवश्यकता की पूर्ति तो की जाए, पर उसकी एक मर्यादा हो । सार्वजनिक सड़क पर चलने का अधिकार सबको है, परन्तु दूसरे के मार्ग को अवरुद्ध करने या टक्कर मारने का अधिकार किसी को भी नहीं । यही बात संचयवृत्ति / परिग्रह - संज्ञा पर भी लागू होती है और इसका उल्लंघन सामाजिक अपराध है। 484
असन्तोषमविश्वासमारम्भं दुःखकारणम्, मत्वा मूर्च्छाफलं कुर्यात् परिग्रह - नियंत्रणम् । एवमलिये अदत्ते अबभचेरे परिग्गहे चेव । कीरइ अज्झवसाणं जं तेण दु वज्झए पावं || तह विय सच्चे दत्ते बभे अपरिग्गहत्तणे चेव । कीरदि अज्झवसावं जं तेण दु वज्झदे पुण्णं । । भागवत - 6 /14/8
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डॉ. सागरमल जैन से वैयक्तिक चर्चा के आधार पर
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योगशास्त्र, गाथा 106
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समयसार, गाथा. 263-264 (बंध)
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