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जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व
मूल है।479 अर्थ की तृष्णा ने कितना अनर्थ किया है ? अर्थ के पीछे पागल बनकर पुत्र ने पिता की हत्या की, भाई ने भाई का खून किया, एक राष्ट्र ने दूसरे राष्ट्र पर आक्रमण किया, हजारों निरपराध व्यक्तियों के खून की होली खेली गई, हजारों स्त्रियाँ असमय में विधवा हुईं, हजारों माताएं पुत्रों के बिना बिलखती रहीं। अर्थ के अनर्थ की कहानी इतनी लम्बी है कि यदि उस बात का विस्तृत रूप में वर्णन करें, तो पृष्ठ-के-पृष्ठ भर सकते हैं। आवश्यकता से अधिक संचय मानव को मानव नहीं रहने देता, वह उसी मानव का हरण कर लेता है तथा जिस मानव में मानवता नहीं है, वह दानव के समान है। यह दानव-वृत्ति ही हिंसा है। धन व्यक्ति का ग्यारहवाँ प्राण है, अतः धन का संचय हिंसा है। आचार्य महाप्रज्ञजी न केवल अध्यात्म के लिए, अपितु स्वस्थ सामाजिक-जीवन जीने के लिए विसर्जन को अनिवार्य मानते हैं। उनका मानना है कि हिंसा से भी अधिक जटिल हैपरिग्रह की समस्या। वर्तमान युग की समस्याओं को देखते हुए अपरिग्रह पर अधिक बल देना जरूरी है। 'अहिंसा परमोधर्मः' के साथ-साथ 'अपरिग्रहः परमोधर्मः -इस घोष का प्रबल होना जरूरी है। जिस दिन 'अहिंसा परमो धर्मः' के साथ 'अपरिग्रहः परमो धर्मः' का स्वर बुलन्द होगा, विश्व की अधिकांश समस्याओं का समाधान उपलब्ध हो जाएगा," 480 इसलिए अपरिग्रह का विचार और आचार केवल परमार्थ-साधना का विषय नहीं है, अपितु व्यक्तिगत जीवन के सच्चे सुख, स्वस्थ्य समाज-संरचना के लिए आवश्यक है।
2. परिग्रह- दुःख, असंतोष और बंध का कारण -
संचयवृत्ति और परिग्रह कितना भी कर लो, फिर भी असंतोष ही रहता है। धन कितना भी मिल जाए, फिर भी तुप्ति नहीं होती है, इसलिए वह दुःख का कारण है। मूर्छा वाले को अत्यधिक धन मिल जाए, फिर भी संतोष नहीं होता, बल्कि वह उत्तरोत्तर अधिक-से-अधिक धन मिलने की आशा ही करता है और दुःखी होता है। दूसरे की अधिक सम्पत्ति देखकर अपनी कम सम्पत्ति में असंतोष मानने से दुःख ही होता है। अविश्वास भी दुःख का कारण है। अपने द्वारा संचित धन की रक्षा करने हेतु उसे किसी पर भी विश्वास नहीं होता है, इसलिए वह रात को भी सुख से नहीं सोता और दिन को भी चैन से नहीं रहता। वह अपने संचित धन को गोबर आदि
479 अत्थो मूलं अणत्थाणं। – मरणसमाधि – 603 480 अस्तित्व और अहिंसा, आचार्य महाप्रज्ञजी, पृ. 63
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