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________________ जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व दिखाई देते हैं। कलिकालसर्वज्ञ श्री हेमचन्द्राचार्यरचित योगशास्त्र में कहा गया है - "इस परिग्रह में त्रसरेणु (सूक्ष्म रजकण) जितने भी कोई गुण नहीं हैं; बल्कि उसमें पर्वत जितने बड़े-बड़े दोष पैदा होते हैं। 477 धर्मकार्य के लिए भी परिग्रह की इच्छा करना उचित नहीं है। पैर को कीचड़ में डालकर बाद में उसे धोने के बजाय पहले ही कीचड़ का स्पर्श न करना अच्छा है, क्योंकि कोई व्यक्ति स्वर्णमणि रत्नमय सोपानों और हजारों खंभेवाला तथा स्वर्णमय भूमितलयुक्त जिनमन्दिर बनवाता है, उससे, अर्थात् पुण्यबंध के कार्य से भी अधिक फल तप-संयम या व्रताचरण का होता है। संबोधसत्तर में भी इसी बात की पुष्टि की गई है। परिग्रह या संचयवृत्ति के दुष्परिणाम निम्न हैं 1. परिग्रह हिंसा का कारण होता है। 2. परिग्रह दुःख, असंतोष और बंध का कारण होता है। 3. संचयवृत्ति एक सामाजिक अपराध है । 4. वर्ग-संघर्ष का कारण परिग्रह है । 477 5 देशों में युद्ध का कारण भी परिग्रह है। 6. परिग्रह के कारण से भोगवृत्ति को बढ़ावा मिलता है। 7. गरीबी की खाई चौड़ी हो जाती है । 478 1. परिग्रह हिंसा का कारण केवल हत्या या रक्तपात करना ही हिंसा नहीं है, परिग्रह भी हिंसा ही है, क्योंकि हिंसा के बिना परिग्रह करना असंभव हैं। 478 संग्रह के द्वारा दूसरों के हितों का हनन होता है और इस रूप में परिग्रह भी हिंसा ही है । आचार्य शंकर ने कहा है- "अर्थमनर्थ भावय नित्यं", अर्थ अनर्थकारी है, उस पर चिन्तन करो। मरणसमाधि में भी कहा गया है - अर्थ अनर्थों का 8. विज्ञापनों के माध्यम से गलत जानकारी देकर सम्पत्ति - अर्जन की प्रवृत्ति बलवती होती है । -- त्रसरेणुसमोऽप्यत्र न गुणः कोऽपि विद्यते । दोषास्तु पर्वतस्थूलाः प्रादुःष्यन्ति परिग्रहे ।। आरंभपूर्वको परिग्रहः । - सूत्रकृतांगचूर्णि- 1 /2/2 Jain Education International 253 योगशास्त्र - 2/108 For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004097
Book TitleJain Darshan me Vyavahar ke Prerak Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages580
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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