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________________ जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व परिग्रह जड़-परिग्रह है। परिग्रह 'रूपी' या 'अरूपी' हो सकता है। दृश्य वस्तुओं का संचय रूपी - परिग्रह है, जबकि अदृश्य वस्तुओं (जैसे -विचार, भाव आदि) का परिग्रहण अरूपी - परिग्रह है। इसी प्रकार, परिग्रह 'स्थूल या अणु' हो सकता है। सूक्ष्म वस्तुओं का परिग्रह अणु - परिग्रह है तथा स्थूल वस्तुओं का परिग्रह स्थूल - परिग्रह कहलाता है, किन्तु परिग्रह के भेदों की सर्वाधिक एवं महत्त्वपूर्ण विद्या 'बाह्य' और 'आभ्यंतर' के भेद में देखी जा सकती है। जब मन में मूर्च्छा होती है, तो उस मूर्च्छा से, चाहे जड़-चेतन, रूपी-अरूपी, स्थूल- अणु, किसी भी प्रकार की वस्तु हो, उसका संग्रह करना परिग्रह कहलाता है। परिग्रह या संचयवृत्ति के दुष्परिणाम - एक बार जम्बूस्वामी ने आर्य सुधर्मा से पूछा भगवान् महावीर की दृष्टि में बंधन क्या है और उसे कैसे तोड़ा जा सकता है ? आर्य सुधर्मा ने उत्तर दिया परिग्रह बंधन है474 और बंधन का हेतु है - ममत्व” । प्रस्तुत प्रसंग में बंधन के हेतु के रूप में पहला स्थान परिग्रह को दिया गया है, हिंसा को उसके बाद में रखा गया है। इससे भी स्पष्ट है कि सभी आश्रवों में परिग्रह को गुरुतर आस्रव या बन्धन का हेतु माना गया है। 476 252 - वस्तुतः, जैनदर्शन में 'अर्थ' को ही मोटे तौर पर परिग्रह मान लिया गया है और कुल मिलाकर परिग्रह का या तो पूर्ण निषेध किया गया है ( मुनिधर्म), अथवा उसे मर्यादित (सीमित) करने को कहा गया है (गृहस्थधर्म) । व्यक्ति का जब तक भौतिक जगत् से सम्बन्ध होता है, उसे अपने जीवन-निर्वाह के लिए भौतिक संसाधनों की आवश्यकता प्रतीत होती है, परन्तु जब ये ही आवश्यकताएं आसक्ति में बदल जाती हैं, तो एक ओर संग्रह होता है तथा दूसरी ओर संग्रह की लालसा बढ़ती जाती है । इसी से समाज में आर्थिक विषमता का बीज पड़ता है। एक ओर संग्रह ( परिग्रह ) बढ़ता है, तो दूसरी ओर गरीबी बढ़ती जाती है। परिणामस्वरूप, आर्थिक विषमताओं के कारण समाज में कई दुष्परिणाम 474 उक्तं हि - " आरम्भपरिग्रहौ बन्धहेतु " येऽपि च रागादयः तेऽपि नारम्भपरिग्रहावन्तरेण भवन्तीति, तेन तावेव वा गरीयांसाविति तत्रापि परिग्रहनिमित्तं आरम्भः क्रियत इति कृत्वा स एव गरीयस्त्वात् पूर्वमुपदिश्यते । - सूत्रकृतांगचूर्णि, पृ. 21-22 1/1/2-3 475 476 सूत्रकृतांग वही - 1/1/4 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004097
Book TitleJain Darshan me Vyavahar ke Prerak Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages580
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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