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जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व
अन्तरंग-परिग्रह -
आत्मा के वे परिणाम, जो कर्मबन्ध या मूर्छा आदि के प्रत्यक्ष हेतु हैं, वे अंतरंग-परिग्रह हैं। यद्यपि ये बाहर से दृष्टिगोचर नहीं होते, किन्तु अन्तर्मानस में चोर की तरह छिपे रहते हैं। प्रश्नव्याकरणसूत्र 468 में अंतरंग-परिग्रह का विश्लेषण करते हुए कहा है- लालसा, तृष्णा, इच्छा, आशा और मूर्छा- ये सभी असंयमरूप अंतरंग-परिंग्रह हैं। इन्हीं के कारण बाह्य-परिग्रह का संचय होता है।
अंतरंग-परिग्रह के मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और अशुभ योग -ये पांच कारण बताए हैं।469 आगम के व्याख्या-साहित्य में परिग्रह के भेद-प्रभेदों की विचार-चर्चा करते हुए चौदह अंतरंग-परिग्रह बताए गए हैं।470
मिथ्यात्व, राग, द्वेष, क्रोध, मान, माया, लोभ, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा और वेद - ये अन्तरंग-परिग्रह के चौदह भेद हैं। कहीं-कहीं पर राग-द्वेष को कषाय में सम्मिलित कर वेद के स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसकवेद- ये तीन भेद किए हैं। वस्तुतः, मिथ्यात्व और कषाय -ये कलुषित चित्तवृत्तियाँ हैं, जो अनादिकाल से आत्मा के साथ लगी हैं और उन्हीं के कारण मूर्छा करता हुआ आत्मा कर्मबंधन (परिग्रह) करता है।
बाह्य-परिग्रह -
जब अंतरंग में परिग्रहवृत्ति होती है, तभी बाह्य-वस्तुओं को ग्रहण करने की अभिलाषा मन में उत्पन्न होती है। जैसे पदार्थ अगणित हैं, वैसे
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468 प्रश्नव्याकरणसूत्र, श्री मधुकर मुनि, पृ. 145 409 प्रश्नव्याकरणसूत्र, वृत्ति-761, सन्मति ज्ञानपीठ प्रकाशन
(क) प्रश्नव्याकरण टीका, पृ. 451 (ख) कोहो माणो माया, लोभो, पेज्जं तहेव दोसो अ ।
मिच्छति वेद अरइ, रइ हासो सागो भय-दुगुंछा ।। -- बृहत्तकल्पभाष्य -931 (ग) मिच्छत-वेद रागा, हासादि भया होति छदीसा ।
चत्तारि तह कसाया, चोद्दसं अब्भंतरा गंथा ।। ---- प्रतिक्रमणत्रयी, पृ. 175
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