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________________ जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व जैनदर्शन में परिग्रह के प्रकार जैन - आचार्यों के अनुसार, व्यक्ति जब तक सांसारिक - वस्तुओं और उनसे उत्पन्न सुखों की ओर उदासीनता की भावना नहीं लाता है, तब तक नैतिक और आध्यात्मिक - जीवन की शुरूआत नहीं हो सकती है, इसलिए परिग्रह के त्याग एवं निवृत्ति की भावना आवश्यक है। वस्तुतः परिग्रह धन और सम्पत्ति तक ही सीमित नहीं है। मनुष्य का अपने घर, परिवार तथा संबंधित वस्तुओं के प्रति इतना अधिक मोह बढ़ जाता है कि वह उन सबको अपनी संपत्ति समझ लेता है, इसलिए परिग्रह के प्रकारों को समझना आवश्यक है, ताकि उनका त्याग कर वह अपने लक्ष्य की ओर बढ़ सके। - जैन - शास्त्रों में सिर्फ बाह्य-पदार्थों को ही परिग्रह नहीं माना गया है, अपितु इन भावनाओं, इच्छाओं और आवेगों - संवेगों आदि को भी परिग्रह माना गया है। जिनके कारण मानव की धर्म-साधना, नैतिकता और नैतिक आचार, विचार, व्यवहार में तनिक भी व्यवधान पड़ता है, वे सभी परिग्रह हैं। इस दृष्टिकोण से परिग्रह के दो भेद हैं अंतरंग - परिग्रह और बाह्य-परिग्रह | भगवतीसूत्र में परिग्रह के तीन भेद बताए हैं 467 1. कर्म - परिग्रह राग-द्वेष के वशीभूत होकर अष्ट प्रकार के कार्यों को ग्रहण करना कर्म - परिग्रह है । 3. बाह्य भांड - परिग्रह से परिग्रह रूप हो जाते हैं । 2. शरीर - परिग्रह विश्व में जितने भी जीव हैं, वे सभी शरीरधारी हैं। यह शरीर भी परिग्रह है, क्योंकि इसके प्रति ममत्व-वृत्ति से परिग्रह उत्पन्न हो जाता है। - - Jain Education International 249 बाह्य-वस्तु और पदार्थ भी ममत्त्ववृत्ति 467 कम्म पग्गिहे, सरीर परिग्गहे, वाहिर भंडमत्त परिग्गहे । 1 ये तीनों इसलिए परिग्रह हैं, क्योंकि ये जीव के द्वारा ग्रहण किए जाते हैं। ये राग-द्वेष की अभिवृद्धि करते हैं, आसक्ति के कारण बनते हैं, इसलिए इन्हें परिग्रह कहते हैं । भगवतीसूत्र - 18/7 For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004097
Book TitleJain Darshan me Vyavahar ke Prerak Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages580
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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