SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 254
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 248 जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व 19. कलिकरण्ड - कलह का पिटारा। परिग्रह कलह, युद्ध, बैर, विरोध, संघर्ष आदि का प्रमुख कारण है, अतएव इसे कलह का पिटारा नाम दिया गया है। 20. प्रविस्तर - धन-धान्य आदि का विस्तार भी परिग्रह है। 21. अनर्थ - परिग्रह नानाविध अनर्थों का प्रधान कारण है। 22. संस्तव - संस्तव का अर्थ है -अति परिचयं या अच्छा मानना। यह वृत्ति मोह और आसक्ति को बढ़ाती है। . 23. अगुप्ति - अपनी इच्छाओं या कामनाओं का गोपन न करना, उन पर नियन्त्रण न रखकर उन्हें स्वच्छन्द छोड़ देना। 24. आयास - आयास का अर्थ है - खेद या प्रयास। परिग्रह जुटाने के लिए मानसिक और शारीरिक-खेद होता है, प्रयास करना पड़ता है। . 25. अवियोग- विभिन्न पदार्थों के रूप में धन, मकान या दुकान आदि के रूप में जो परिग्रह एकत्र किया है, उसे बिछुड़ने न देना। चमड़ी चली जाए, पर दमड़ी न जाए -ऐसी वृत्ति अवियोग है। 26. अमुक्ति – मुक्ति अर्थात् निर्लोभता, उसका न होना, अर्थात लोभ की वृत्ति होना। यह मानसिक भाव–परिग्रह है। 27. तृष्णा – अप्राप्त पदार्थों की लालसा और प्राप्त वस्तुओं की बुद्धि की अभिलाषा तृष्णा है, तृष्णा परिग्रह का मूल है। 28. अनर्थक - इसका तात्पर्य है - निरर्थक। पारमार्थिक-हित या सुख के लिए परिग्रह निरर्थक और निरुपयोगी है। इतना ही नहीं, वह वास्तविक हित और सुख के लिए बाधक है। 29. आसक्ति - ममता, मूर्छा, गृद्धि आदि परिग्रहरूप हैं। 30. असंतोष-असंतोष भी परिग्रह का एक रूप है, जिसका तात्पर्य है -मन में बाह्य-पदार्थों के प्रति सन्तुष्टि न होना। भले ही पदार्थ न हों, परन्तु अन्तस में यदि असन्तोष है, तो भी परिग्रह है। अतः, "मुच्छा परिग्गहो वुत्तों' -इस आगमोक्ति के अनुसार, ममत्वपूर्वक ग्रहण किए जाने वाले धन-धान्य, महल-मकान, कुटुम्ब-परिवार, यहाँ तक कि शरीर भी परिग्रह है। इस प्रकार ये तीस नाम परिग्रह के हैं। शान्ति, सन्तोष, समाधि और आनन्दमय जीवन यापन करने वालों को परिग्रह के इन रूपों को भलीभांति समझ कर त्यागना चाहिए। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004097
Book TitleJain Darshan me Vyavahar ke Prerak Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages580
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy