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________________ जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व 247 5. निधान – धन को भूमि में गाड़कर रखना, तिजोरी में रखना, या बैंक ___में जमा करवाकर रखना, दबाकर रख लेना। 6. सम्भार - धान्य आदि वस्तुओं को अधिक मात्रा में भर कर रखना। ___वस्त्र आदि को पेटियों में भर कर रखना। 7. संकर - संकर का सामान्य अर्थ है -मिश्रण करना। यहाँ इसका विशेष अभिप्राय है -मूल्यवान् पदार्थों में अल्पमूल्य वस्तु मिलाकर अधिक धन अर्जित करना। 8. आदर – परपदार्थों में आदरबुद्धि रखना। शरीर, धन आदि को अत्यन्त प्रीतिभाव से संभालना-संवारना आदि। 9. पिण्ड – किसी पदार्थ को या विभिन्न पदार्थों को एकत्रित करना। 10. द्रव्यसार - द्रव्य अर्थात् धन को ही सारभूत समझना। धन को प्राणों से भी अधिक मानकर प्राणों को संकट में डालकर भी धन के लिए यत्नशील रहना। 11. महेच्छा - असीम इच्छा या असीम इच्छा का कारण। 12. प्रतिबंध - किसी पदार्थ के साथ बंध जाना या जकड़ जाना, जैसे भ्रमर सुगन्ध के लालच में कमल को भेदन करने की शक्ति होने पर भी भेद नहीं सकता, कोश में बंद हो जाता है और कभी-कभी मृत्यु का ग्रास बन जाता है, इसी प्रकार स्त्री, धन आदि के मोह में जकड़ जाना, उसे चाहकर भी छोड़ न पाना। 13. लोभात्मा – लोभ का स्वभाव, लोभरूप मनोवृत्ति। 14. महद्दिका - महती आकांक्षा अथवा याचनावृत्ति। 15. उपकरण - जीवनोपयोगी साधन-सामग्री की संचयवृत्ति। वास्तविक आवश्यकता का विचार न करके अत्यधिक साधन-सामग्री एकत्र करना। .. 16. संरक्षणा – प्राप्त पदार्थों का आसक्तिपूर्वक संरक्षण करना। 17. भार - परिग्रह जीवन के लिए भारभूत है, अतएव उसे 'भार' नाम __ दिया गया है। 18. संपातोत्पादक - नाना प्रकार के संकल्पों-विकल्पों का उत्पादक, अनेक अनर्थों एवं उपद्रवों का जनक । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004097
Book TitleJain Darshan me Vyavahar ke Prerak Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages580
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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