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जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व
उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि परिग्रह का मूल लक्षण मूर्च्छा और संग्रहवृत्ति है । इच्छा और मूर्च्छा से भरा हमारा मन जहां तक जाता है, वहां तक सब कुछ परिग्रह हो जाता है। जिसके मन में पर पदार्थों के प्रति इच्छा है, मूर्च्छा का भाव है, उसके लिए सारा संसार परिग्रह है। जिसके मन में ऐसा ममत्व या मूर्च्छा-भाव निकल गया है, संसार में रहते हुए भी, संसार उसका परिग्रह नहीं है। कहा गया है-,
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मूर्च्छाच्छन्न धियां सर्व जगदेव परिग्रहः । मूर्च्छायां रहितानां तु जगदेवाऽपरिग्रहः । । '
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आज परिग्रह की मूर्च्छा के कारण असंतोषी मनुष्य अनेक वर्जित दिशाओं में जा रहा है। धन के मद से नित नई चाह रखने वाला अपने परिवार या परिजनों में कोई नवीनता नहीं देख पाता । उसकी दृष्टि कहीं अन्यत्र होती है। जहाँ व्यभिचार के अवसर नहीं हैं, वहां भी मानसिक - व्यभिचार निरन्तर चल रहा है । जीवन तनावों में कसता चला जा रहा है और जिसके पास जो कुछ भी है, वह उसमें संतुष्ट नहीं है । संसार के किसी भी पदार्थ को लें, किसी भी उपलब्धि पर विचार कर लें, जिसे वह प्राप्त नहीं है, वह उसे पाने के लिए दुःखी है, परन्तु जिसे वह प्राप्त है, वह भी सुखी नहीं है। वह तो किसी और पदार्थ के लिए अपने मन में आकर्षण पाल रहा है। उसी लालसा के कारण परिग्रह और संचयवृत्ति बढ़ रही है और यही वृत्ति परिग्रह है, मूर्च्छा है ।
466 'प्रश्नव्याकरणसूत्र' में परिग्रह के गुणनिष्पन्न अर्थात् वास्तविक अर्थ को प्रकट करने वाले निम्न तीस नामों का उल्लेख किया गया है
1. परिग्रह शरीर, धन, धान्य आदि बाह्य-पदार्थों को ममत्वभाव से
ग्रहण करना ।
2. संचय – किसी भी वस्तु को अधिक मात्रा में ग्रहण करना । वस्तुओं को जुटाना, एकत्र करना ।
3. चय
4. उपचय- प्राप्त पदार्थों की वृद्धि करना, बढ़ाते जाना ।
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465 मानवता की धुरी, नीरज जैन, पृ. 94
प्रश्नव्याकरणसूत्र 5/94
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