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जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व
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जिस प्रकार अग्नि में घृत डालने से अग्नि शान्त नहीं होती, उसी प्रकार परिग्रह से तृष्णा शान्त नहीं होती, वरन् बढ़ती ही जाती है। तृष्णा और परिग्रह की अग्नि केवल त्याग के द्वारा ही शान्त हो सकती है।
परिग्रह के स्वरूप की विस्तृत विवेचना के पश्चात् परिग्रह के लक्षण के बारे में विवेचना करेंगे।
परिग्रह का लक्षण -
लक्षण, अर्थात् चिह्न या पहचान। जो धर्म अथवा गुण जिस वस्तु का कहलाता है, वह उसमें पूर्णतः व्याप्य हो, उसके सिवाय अन्य किसी भी वस्तु में संभव न हो, वह लक्षण कहलाता है। न्याय की भाषा में कहें, तो 'असाधारणधर्मत्वम् लक्षणस्य लक्षणम्', जो वस्तु-विशेष का असाधारण धर्म है तथा अव्याप्ति, अति व्याप्ति और असम्भव दोष से रहित हो, ऐसे शब्दों का समूह लक्षण कहलाता है, जैसे -ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप, वीर्य तथा उपयोग-ये जीव के लक्षण हैं। 463 जहाँ-जहाँ जीव है, वहाँ-वहाँ ज्ञानादि गुण हैं, उसी प्रकार जहाँ-जहाँ तृष्णा, मूर्छा और आसक्ति है, वहाँ-वहाँ परिग्रह है।
अमृतचंद्राचार्य विरचित 'पुरुषार्थसिद्धयुपाय' ग्रंथ में परिग्रह का लक्षण इस प्रकार कहा गया है -"जो मूर्छा है, वह ही परिग्रह समझना चाहिए और मूर्छा मोहनीयकर्म के उदय से उत्पन्न होती है। 404 बाह्याभ्यन्तर-परिग्रह के प्रति ममत्व एवं उसके रक्षण आदि के जो व्यापार हैं, उन्हीं को मूर्छा कहते हैं। गाय, भैंस, मणि, मुक्ता आदि चेतन-अचेतन बाह्य-परिग्रह और रागद्वेषादि अभ्यन्तर-परिग्रह के संरक्षण, अर्जन आदि की प्रवृत्ति को मूर्छा कहते हैं।. आभ्यन्तर-ममत्वरूपी परिणाम या भाव को मूर्छा कहते हैं, यही परिग्रह है। बाह्य-परिग्रह इसलिए परिग्रह कहलाता है, क्योंकि उसमें, 'यह मेरा है -इस प्रकार का विचार या भाव होता है। बाह्य-परिग्रह सदा मूर्छा का निमित्त कारण होने से, या, यह मेरा है- ऐसे ममत्वभाव से युक्त होने से परिग्रह कहलाता है।
465 नवतत्त्वप्रकरण, गाथा-5 464 या मूर्छा नामेयं विज्ञातव्यः परिग्रहो होषः ।
मोहोदयादुदीर्णो मूर्छा तु ममत्वपरिणामः ।। – पुरूषार्थसिद्धयुपाय, गाथा-111
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