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________________ जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व 241 हुए भी मूर्छा न होने के कारण वह अपरिग्रही है। जैनाचार्यों ने बार-बार बलपूर्वक कहा है कि न्याय की कमाई से मनुष्य जीवनभर निर्वाह कर सकता है, किन्तु धन का भण्डार नहीं भर सकता। अटूट संपत्ति तो पाप की कमाई से ही प्राप्त की जा सकती है। जिस प्रकार नदियाँ जब भरती हैं, तो वर्षा के गन्दे जल से ही भरती हैं।442 वास्तव में परिग्रह आसक्ति ही है। इस दृष्टिकोण से, धन-वैभव के अपार भण्डार होते हुए भी व्यक्ति अपरिग्रही या अल्प परिग्रही हो सकता है, शर्त यह है कि उसके हृदय में उस वैभव के प्रति अनासक्ति का भाव हो। इच्छा-परिग्रह - कुन्दकुन्दाचार्यविरचित 'समयसार' में इच्छा को परिग्रह कहा गया है। जिसमें इच्छा है, वह परिग्रही है, जिसमें इच्छाएँ नहीं हैं, वह अपरिग्रही है, क्योंकि इच्छा अज्ञानमय भाव है। वे भाव ज्ञानी के नहीं हो सकते हैं।444 ज्ञानी को आहार की भी इच्छा नहीं है, इस कारण ज्ञानी का आहार करना भी परिग्रह नहीं है। यदि आहार इच्छापूर्वक, आसक्तिपूर्वक और स्वाद के लिए किया जाता है, तो वह भी परिग्रह बन जाता है। जैन-कर्मसिद्धान्त यह स्पष्ट करता है कि असातावेदनीय-कर्म के उदय से जठराग्नि से क्षुधा उत्पन्न होती है, वीर्यांतराय के उदय से उसकी वेदना सही नहीं जाती और चारित्रमोह के उदय से ग्रहण करने की इच्छा जाग्रत होती है, इसलिए इच्छा को कर्मजन्य माना है। परिग्रह के स्वरूप को बतलाते हुए कहा गया है -ज्ञानी खाने की कोई इच्छा रखता ही नहीं है। यह अनिच्छा ही अपरिग्रह है। वह भूख को देखता है, पर भूख से व्याकुल नहीं होता है। इच्छा का अभाव ही अपरिग्रह है। प्यासा व्यक्ति पानी पीता है, वह आवश्यकता है, पर शराबी शराब पीता है, वह इच्छापूर्वक है, इसलिए वह परिग्रह है। साधु वस्त्रों का धारण लज्जा को ढकने के लिए करता है, पर ___अवि अप्पणो वि देहम्मि नायरंति ममाइयं ।। - दशवैकालिकसूत्र -6/21 442 उत्तराध्ययनसूत्र, साध्वी चन्दना, पृ. 466 443 जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन, देवेन्द्र मुनि, पृ. 324 अपरिग्गहो अणिच्छो भणिदो णाणी य णिच्छदि अधम्म। अपरिग्गहो अधम्मस्य जाणगो तेण सो होदि।। - समयसार, गाथा 211 अपरिग्गहो अणिच्छो भणिदो णाणी य णिच्छदि असणं। अपरिग्गहो दुं असणस्स जाणगो तेण सो होदि।। - वही, गाथा 212 अपरिग्गहो अणिच्छो भणिदो पाणीय णिच्छदे पाण। अपरिग्गहो दु पाणस्स जाणगो तेण सो होदि।। - वही, गाथा-13 445 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004097
Book TitleJain Darshan me Vyavahar ke Prerak Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages580
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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