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जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व
आसक्ति दुःख का पर्यायवाची ही बन गई है। यह तृष्णा या आसक्ति ही परिग्रह (संग्रहवृत्ति) का मूल है। आसक्ति ही परिग्रह है।
मूर्छा-परिग्रह -
आचार्य उमास्वाति ने परिग्रह का स्वरूप बताते हुए कहा है - "मूर्छा परिग्रह है,438 अर्थात् किसी भी वस्तु के प्रति ममत्व का अनुभव करना, या उस पर अपना मालिकाना हक रखना परिग्रह है। संसार में जड़ और चेतन, छोटे-बड़े अनेक पदार्थ हैं, यह संसारी प्राणी मोह या रागवश उन्हें अपना मान लेता है। उनके संयोग में यह हर्ष मानता है और वियोग में दुःखी होता है तथा उनके अर्जन, संचय और संरक्षण के लिए यह निरन्तर प्रयत्नशील रहता है। अब तो इन बाह्य पदार्थों पर स्वामित्व स्थापित करने के लिए और अपने देशवासियों की तथाकथित सुख-सुविधा के लिए राष्ट्र-राष्ट्र में युद्ध होने लगे हैं। वर्तमान काल में न्याय-नीति की स्थापना और असदाचार के निवारण के लिए युद्ध न होकर, अपने-अपने स्वार्थों की पूर्ति आदि कारणों से युद्ध होते हैं। वास्तव में देखा जाए, तो इन सब प्रवृत्तियों की तह में मूर्छा या तृष्णा ही काम करती है, इसलिए सूत्रकार ने मूर्छा को ही परिग्रह कहा है। 'मैं' और 'मेरे' का भाव परिग्रह की ओर प्रेरित करता है। 439 स्त्री, पुरुष, घर, धन-धान्य, चेतन-अचेतन आदि वस्तुओं के प्रति ममत्व रखना परिग्रह है।40 अन्य शब्दों में कहें, तो ऐसी वस्तुओं के मिलने की खुशी एवं उनके चले जाने का दुःख-रूपी मूर्छाभाव ही परिग्रह है। जिसके पास विपुल सम्पत्ति है, वह अवश्य परिग्रही है, परन्तु जिनके पास कुछ भी नहीं है, फिर भी चित्त में बड़ी-बड़ी आकांक्षाएँ लिए रहते हैं, वे भी परिग्रही हैं। दशवैकालिकसूत्र में कहा गया है -"मुनि न तो संग्रह करता है, न कराता है और करने वालों का समर्थन भी नहीं करता है। वह पर पदार्थों से पूर्णतया अनासक्त एवं अकिंचन होता है। इतना ही नहीं, वह अपने शरीर से भी ममत्व नहीं रखता है, संयमनिर्वाह के लिए वह जो कुछ भी अल्प उपकरण अपने पास रखता है, उस पर भी उसका ममत्व नहीं होता है,441 इसलिए मुनि के पास सामग्री होते
438 मूर्छा परिग्रहः – तत्त्वार्थसूत्र- 7, 17 439 The feeling of I and mine, are root causes of Infatuation. तत्त्वार्थसूत्र, अनु.
छगनलाल जैन, पृ. 191 440 सो य परिग्गहो चेयणाचेयणेसु दवेसु मुच्छानिमितो भवई। - जिनदास चूर्णि, पृ. 151
सव्वत्थुवहिणा बुद्धा संरक्षणपरिग्गहे।
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