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________________ 242 जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व गृहस्थ वस्त्रों का प्रयोग सुन्दर दिखाई देने के लिए करता है। इस प्रकार, रागभाव और आसक्तिपूर्वक की गई क्रिया परिग्रहस्वरूप होती है। आसक्ति/तृष्णा-परिग्रह बौद्ध-परम्परा में भी इच्छा (तृष्णा) को बन्धन एवं दुःखों का मूल माना गया है। बुद्ध कहते हैं कि तृष्णा के नष्ट हो जाने पर सभी बन्धन स्वतः नष्ट हो जाते हैं। वे कहते हैं कि चाहे स्वर्ण-मुद्राओं की वर्षा होने लगे, लेकिन उससे भी तृष्णायुक्त मनुष्य की तृप्ति नहीं होती।146 भगवान् बुद्ध की दृष्टि में तृष्णा ही दुःख है और जिसे यह विषैली तृष्णा घेर लेती है, उसके दुःखं वैसे ही बढ़ते रहते हैं, जैसे खेतों में वीरण घास बढ़ती रहती है।448 इच्छाओं (आसक्ति) का क्षय ही दुःखों का क्षय है। जो व्यक्ति इस तृष्णा को वश में कर लेता है, उसके दुःख उसी प्रकार समाप्त हो जाते हैं, जैसे कमलपत्र पर रखा हुआ जल-बिन्दु शीघ्र ही समाप्त हो जाता है। 449 इस प्रकार, बुद्ध की दृष्टि में भी आसक्ति (परिग्रह) ही वास्तविक दुःख है और अनासक्ति (अपरिग्रह) ही सच्चा सुख है। बुद्ध की दृष्टि में आसक्ति, चाहे वह पदार्थों की हो, चाहे किसी अतीन्द्रिय तत्त्व की, बन्धन ही है। अस्तित्व की चाह तृष्णा है और मुक्ति तो वीतरागता या अनासक्ति (अपरिग्रह) में ही प्रतिफलित होती है,450 क्योंकि आसक्ति ही बन्धन है।" बुद्ध कहते हैं कि परिग्रह या संग्रहवृत्ति का मूल यही आसक्ति या तृष्णा है। कहा भी गया है कि परिग्रह का मूल इच्छा है,452 अतः बुद्ध की दृष्टि में भी अनासक्ति की वृत्ति के विकास के लिए परिग्रह का विसर्जन आवश्यक है। महात्मा गांधी ने तो गीता को 'अनासक्ति-योग' ही कहा है। गीताकार ने भी यह स्पष्ट किया है कि आसक्ति का तत्त्व ही व्यक्ति को संग्रह और भोगवासना के लिए प्रेरित करता है। कहा गया है कि आसक्ति के बन्धन में बंधा हुआ व्यक्ति कामभोग की पूर्ति के लिए अन्यायपूर्वक 446 धम्मपद, 186 447 संयुत्तनिकाय- 2/12/66, 1/1/65 448 धम्मपद, 335 वही- 336 450 मज्झिमनिकाय-3/20 सुत्तनिपात- 68/5 महानिद्देसपालि- 1/11/107 451 452 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004097
Book TitleJain Darshan me Vyavahar ke Prerak Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages580
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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