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________________ जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व 237 रहा है। आज के विज्ञापन, पत्र-पत्रिकाएं ऐसी इच्छा जाग्रत करते हैं, जो अनावश्यक को भी आवश्यक बना देती हैं। उन्हें देखकर ऐसा लगता है कि इनके बिना तो हमारा जीवन चल ही नहीं सकता। विज्ञापन आदि संचयवृत्ति को जाग्रत करते हैं और इससे परिग्रह-संज्ञा की वृत्ति बढ़ती ही चली जाती है, अतः हमें आवश्यकता को सम्यक रूप से समझना होगा। 2. लोभमोहनीय-कर्म के उदय से+30 - जो कर्म जीव को मोहग्रस्त करता है, विवेक-भ्रष्ट करता है, उसे मोहनीयकर्म कहते हैं। कर्मग्रन्थ में मोहनीयकर्म के दो भेद किए गए हैं - 1. दर्शन-मोहनीय और 2. चारित्र-मोहनीय। प्रस्तुत संदर्भ में, चारित्र-मोहनीयकर्म के उदय से व्रतों और महाव्रतों के ग्रहण एवं पालन में बाधा उपस्थित होती है। इसके भी दो भेद हैं- 1. कषाय-चारित्रमोहनीय, 2. नोकषाय-चारित्रमोहनीय। जिससे दुःखों की प्राप्ति होती है, उसे कषाय कहते हैं। कष् अर्थात् संसार, जन्ममरण, रागद्वेष और आय अर्थात् लाभ । जिसके कारण भव (संसार) का विस्तार होता है, उसे कषाय कहते हैं।432 कषाय चार प्रकार के हैं - 1.क्रोध, 2. मान, 3. माया और 4. लोभ । मोहनीयकर्म के उदय से चित्त में उत्पन्न होनेवाली तृष्णा या लालसा लोभ कहलाती है। जब व्यक्ति में 'लोभमोहनीय-कर्म का उदय होता है, तो अधिकाधिक संग्रह की लालसा उत्पन्न होती है। स्थानांगसूत्र में कहा है कि जिस प्रकार मांस के लिए गिद्ध आदि पक्षी चक्कर काटते हैं, उसी प्रकार लोभी मनुष्य इष्ट पदार्थों की प्राप्ति के लिए उद्यमशील रहता है। लोभ को आमिषावर्त कहा गया है। अतः, स्पष्ट है कि लोभमोहनीय-कर्म के उदय से ही व्यक्ति में परिग्रह-संज्ञा उत्पन्न होती है। 430 सोलस कसाय नव नोकसाय, दुविहं चरित्त मोहणीयं । अण-अपच्चक्खाणा, पच्चक्खाणा य संजलणा।। - प्रथमकर्मग्रंथ, गाथा 17 457 कम्मं कस भवो वा कसमाओ सिं जओ कसाया ता.... | –विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 2978 अभिधानराजेन्द्रकोष, खण्ड-3, पृ. 395 432 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004097
Book TitleJain Darshan me Vyavahar ke Prerak Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages580
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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