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जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व
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परिग्रह-संज्ञा है। प्राणी की संचयात्मक - वृत्ति के कारण स्थानांगसूत्र' में परिग्रह-संज्ञा की उत्पत्ति के चार कारण बताए गए हैं
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1. संचय करने की वृत्ति से ।
2. लोभ-मोहनीयकर्म के उदय से
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3. परिग्रह को देखने से ।
4. परिग्रह सम्बन्धी विचार करने से |
आगे हम इनकी विस्तृत विवेचना करेंगे ।
1. संचय करने की वृत्ति से
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,
मुख्यतः परिग्रह का सीधा सम्बन्ध तो व्यक्ति की आसक्ति से है, किन्तु गौण रूप से वस्तु - संग्रह की वृत्ति भी परिग्रह कहलाती है। मनुष्य एक देहधारी प्राणी है और देहधारी की अपनी कुछ आवश्यकताएँ होती हैं, जिनकी पूर्ति पदार्थों के द्वारा ही की जा सकती है। देह के लिए आहार आवश्यक है अतः आवश्यक पदार्थों का संग्रह और उसके लिए अर्थ-उपार्जन भी जरूरी है। जैनदर्शन में गृहस्थ के लिए यह निर्देश है कि वह अपने पुरुषार्थ से धन का अर्जन करे, क्योंकि मनुष्य को स्वप्रयत्नों से उपार्जित सम्पत्ति को ही भोगने का अधिकार है। गौतमकुलक में कहा गया है- पिता के द्वारा संचित लक्ष्मी निश्चय ही पुत्र के लिए भगिनी के तुल्य होती है और दूसरों की लक्ष्मी पर - स्त्री के समान है, दोनों का भोग वर्जित है, अतः व्यक्ति को अपनी जैविक - आवश्यकता के लिए जितना धन आवश्यक है, उतना उसे संचय करने का अधिकार है, परन्तु यदि वह भविष्य की आवश्यकता की पूर्ति के लिए संचय करता है, तो वह दूसरों के अधिकारों का हनन करता है।
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वर्त्तमान काल में केवल इच्छापूर्ति के लिए ही संचय नहीं किया जाता, वरन् विलासिता, सुविधा और सुख - प्राप्ति के लिए संचय किया जा
428 चउहिं ठाणेहिं परिग्गहसण्णा समुप्पज्जति, तं जहाअविमुत्तयाए, लोभवेयणिज्जस्स कम्मस्स उदएणं,
मतीए, तदट्ठोवओगेणं । - स्थानांगसूत्र 4/582 मोक्खपसाहणहेतुं णाणादी तप्पसहणे देहो ।
हट्ठा आहारो तेण तु कालो अणुण्णातो ।। निशीथभाष्य, 47/91
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