SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 241
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व 235 एक पेटी भर जाने पर दूसरी पेटी भरने की चिन्ता सताती है। इस प्रकार, अनावश्यक धन-सम्पत्ति और पदार्थों का संग्रह करना तथा उन वस्तुओं के प्रति ममत्व-बुद्धि और आसक्ति रखना भी परिग्रह-संज्ञा तो है, किन्तु वह उतना बुरा नहीं है, जितनी मात्रा में स्वामित्व की भावना से जनित संचयवृत्ति। उत्तम भोजन, उत्तम वस्त्र, स्त्री आदि भोगोपभोग के साधनभूत पदार्थों को देखने से, पहले भुक्त पदार्थों का स्मरण करने से, परिग्रह में ममत्व-बुद्धि रखने से तथा लोभकर्म की उदीरणा होने पर परिग्रहसंज्ञा होती है। 424 तत्त्वार्थसार425 में कहा गया है - "अन्तरंग में लोभकषाय की उदीरणा होने से तथा बहिरंग में उपकरणों को देखने से, परिग्रह की ओर उपयोग जाने से और मूर्छाभाव होने से परिग्रह की इच्छा होना परिग्रहसंज्ञा है। यह संज्ञा दसवें गुणस्थान तक होती है। तिर्यंचों में परिग्रह-संज्ञा सबसे कम होती है तथा देवों में सबसे अधिक पायी जाती है, क्योंकि सोना और रत्नों में उनकी सदा आसक्ति बनी रहती है।26 शास्त्रों में धन-वैभव को नहीं, किन्त धन-वैभव के प्रति जो मन में आसक्ति या स्वामित्व की भावना लहरा रही है, उसे परिग्रह-संज्ञा कहा गया है। एक भिखारी है, जिसके पास तन ढकने को न पूरे वस्त्र हैं, न खाने को अन्न और न ही रहने के लिए झोपड़ी, परन्तु उसके मन में चलचित्र की तरह एक के बाद दूसरी इच्छाएँ आ रही हैं। उसके मन में पदार्थों के प्रति तीव्र आसक्ति है, इसीलिए कंगाल होते हुए भी करोड़पति की इच्छाएँ उसकी इच्छाओं के सामने कम हैं। वह चाहता है कि पलक झपकते ही वह संपूर्ण विश्व का स्वामी बन जाए। वस्तुतः, वह दरिद्र होने पर भी महान् परिग्रही है, क्योंकि उसके मन में तीव्र परिग्रहसंज्ञा है।21 जैन-कर्मसिद्धान्त के अनुसार, लोभ-मोहनीयकर्म के उदय से सचित्त एवं अचित्त-द्रव्यों को संचय करने की जो वृत्ति होती है, वह 424 उपयरणदंसणेण य तस्सुवजोगेण मुच्छिदाए य। लोहस्सुदीरणाए परिग्गहे जायदे सण्णा ।। – गोम्मटसार, जीवकाण्ड 137 425 तत्त्वार्थसार, 2/36 का भावार्थ, पृ. 46 प्रज्ञापनासूत्र - 8/711 क) मूछिन्नधियाँ सर्व जगदेव परिग्रहः । मूर्च्छया रहितानां तु, जगदेवा परिग्रहः ।। - उपासकदशांगसूत्र ख) इच्छा परिणामं करेह - उपासकदशांगसूत्र Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004097
Book TitleJain Darshan me Vyavahar ke Prerak Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages580
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy