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________________ जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व लोभ बढ़ता जाता है। वस्तुतः लाभ से लोभ का वर्द्धन होता है। उत्तराध्ययनसूत्र 22 में इसी तथ्य को स्पष्ट किया गया है। 234 परिग्रह - संज्ञा का सामान्य अर्थ संचयवृत्ति से है । यद्यपि संचयवृत्ति सभी प्राणियों में पाई जाती है, फिर भी मनुष्य में परिग्रह - संज्ञा या संचयवृत्ति सर्वाधिक है। सामान्य प्राणी अपनी आहारसंज्ञा की पूर्ति या दैहिक आवश्यकता की पूर्ति के लिए संचय करता है, किन्तु मनुष्य की संचयवृत्ति भिन्न होती है। वह केवल स्वामित्व को प्राप्त करने के लिए ही प्रयत्न करता है। पाश्चात्य मनोवैज्ञानिक मैकड्यूगल ने जिन चौदह मूलवृत्तियों की चर्चा की है, उसमें उसने संचयवृत्ति को भी मूल प्रवृत्ति माना है। जीवन और देह के संरक्षण के लिए संचयवृत्ति आवश्यक है, किन्तु जब वह संचयवृत्ति लोभ और तृष्णा का परिणाम होती है, तो वह संसार में संघर्ष, युद्ध और तनाव को उत्पन्न करने वाली होती है। उपभोग और परिभोग के लिए संचय उतना बुरा नहीं होता है, जितना अधिकार - भावना की दृष्टि से होता है। प्रत्येक प्राणी को अपना जीवन जीने का अधिकार है और इसलिए उसे उपभोग का भी अधिकार है । वह उपभोग के लिए संचय करे, किन्तु जो संचय के लिए संचय करता है, मनोवैज्ञानिक -दृष्टि से वह जो साधन है, उसी को साध्य बना लेता है। जब लोभ की वृत्ति से संचय की वृत्ति होती है, तो वह मनोवैज्ञानिक दृष्टि से तनाव एवं संघर्ष का कारण बन जाती है । आक्रामकता की वृत्ति भी इसी से पनपती है, इसीलिए भागवत् 23 में कहा गया है - "जहां तक उदरपूर्ति का प्रश्न है, या दैहिक आवश्यकता की पूर्ति का प्रश्न है, वहाँ तक पदार्थों के उपभोग का अधिकार प्रत्येक व्यक्ति को है, लेकिन जो आवश्यकता से अधिक का संचय करता है, या उस पर अपना स्वामित्व मानता है, वह चोर है।” परिग्रह - संज्ञा के उत्पत्ति के कारण वस्तुतः यह सत्य है कि इच्छाएं असीम हैं, किन्तु आवश्यकताएं बहुत ही सीमित हैं। "पेट भर सकता है, किन्तु पेटी कभी नहीं भरती । " 422 423 उत्तराध्ययन सूत्र 32/8 यावद् म्रियेत जठरं तावत् स्वत्वं हि देहीनाम् । अधिकं योऽभिमन्येत स स्तेनो दण्डमर्हति । । Jain Education International - भागवत् - 7/14/8-11 For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004097
Book TitleJain Darshan me Vyavahar ke Prerak Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages580
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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