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जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व
मोहनीय-कर्म
दर्शनमोहनीय-कर्म
चारित्रमोहनीय-कर्म
कषाय-मोहनीय
- नोकषाय-मोहनीय
क्रोध
मान माया
लोभ
3. परिग्रह को देखने से -
परिग्रह-संज्ञा की उत्पत्ति का तृतीय प्रमुख कारण परिग्रह-सामग्री को देखने से एवं उसे प्राप्त करने का मानस बनाने से है। मानव-मन की यह वृत्ति है कि 'दूसरों की थाली में घी अधिक दिखाई देता है। मनुष्य के पास उसकी आजीविका निर्वाह करने के लिए पर्याप्त सामग्री है, पर जब उसकी दृष्टि दूसरों की सामग्री, जैसे- मकान, दुकान, वस्त्र, आभूषण, गाड़ी आदि पर पड़ती है, तो उसे अपनी सामग्री कम लगती है। यह कमी की दृष्टि ही भौतिक वस्तुओं के प्रति उसे आकर्षित करती है और परिग्रह-संज्ञा को उत्पन्न करती है। यह मनोवैज्ञानिक तथ्य है कि महिलाओं के पास सौ साड़ियाँ होने पर भी जब वे अपनी पड़ोसिन या अन्य की नई साड़ियाँ देखती हैं, तो आवश्यकता न होने पर भी वे उन्हें खरीदने के लिए तैयार हो जाती हैं। यह वृत्ति आकांक्षा, इच्छा, परिग्रह-संज्ञा को बढ़ाती है।
4. परिग्रह सम्बन्धी विचार करने से
जिस प्रकार भोजन की चर्चा करते हैं, तो भोजन ग्रहण करने की इच्छा जाग्रत होती है, भय-संबंधी विचार करते हैं, तो भय स्वतः ही लगने लगता है, काम-संबंधी विचार करते हैं, तो वासनाएं प्रकट होने लगती हैं, ठीक उसी प्रकार, परिग्रह-संबंधी विचार करते हैं, तो वस्तुओं का संचय
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