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________________ 230 जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व प्रस्तुत संदर्भ में कामवासना का अर्थ संज्ञा (मूल प्रवृत्ति) Instinct} से है, क्योंकि जब तक जीव में इच्छा, आकांक्षा और कामवासना रहेगी, तब तक उसका आध्यात्मिक विकास संभव नहीं हो सकता, क्योंकि मूलवृत्तियाँ जीव की आवश्यकता भी हैं और बंध का कारण भी। आहार-संज्ञा, भय-संज्ञा, मैथुन-संज्ञा और परिग्रह-संज्ञा आदि मूल रूप से सांसारिक-जीव के साथ रहने के कारण, वे कर्मबंधनों में जीव को प्रवृत्त करती हैं, जैसे - शरीर को चलाने के लिए आहार आवश्यक माना गया है, इसके अभाव में शरीर अधिक समय तक टिकाया नहीं जा सकता, क्योंकि आहार ग्रहण करने से शरीर को शक्ति एवं स्फूर्ति मिलती है, परन्तु राग और आसक्तिपूर्वक, भक्ष्याभक्ष्य का विवेक नहीं रखकर, मात्र स्वाद के लिए लिया गया आहार कर्म-बंधन का कारण बनता है और हमारे आध्यात्मिक विकास में बाधा उत्पन्न करता है। तप की साधना द्वारा आहार-संज्ञा को धीरे-धीरे समाप्त किया जा सकता है। जैसा पूर्वोक्त में भयसंज्ञा के विस्तृत विश्लेषण में यह बात स्पष्ट की जा चुकी है कि व्यक्ति अपनी सुरक्षा और सुख के भय के कारण ही सारी पाप-प्रवृत्तियाँ करता है। भय जीवन का दूषण है और अभय जीवन का भूषण। आध्यात्मिक विकास के लिए जीव को अभय की साधना करना चाहिए, तभी वह अपने लक्ष्य तक पहुँच सकता है और अपने आध्यात्मिक-विकास के स्तर को ऊँचा उठा सकता है। मैथुनसंज्ञा, जैसा कहा जा चुका है कि मोहकर्म के उदय होने के कारण राग-परिणाम से स्त्री-पुरुष में जो परस्पर संस्पर्श की इच्छा होती है, यह मिथुन है और उसका कार्य मैथुन है। मिथुनरूपी कामवासना ही आध्यात्मिक विकास में सबसे बड़ी बाधक है, इसलिए आध्यात्मिक-विकास की ओर बढ़ने के लिए इन्द्रिय और मन के संयम से वासनात्मक-प्रवृत्ति को हटाना ही ब्रह्मचर्य है। इस प्रकार अन्य संज्ञाएं भी हैं, जिनके निरसन और क्षय के माध्यम से हम अपने आत्मिक-विकास को बढ़ा सकते हैं। शास्त्रकार कहते हैं कि जब तक जीव में मूलप्रवृत्तियाँ (संज्ञा) और । रागद्वेष विद्यमान हैं, तब तक वह किसी-न-किसी योनि के शरीर द्वारा इंद्रियों आदि की न्यूनाधिकतापूर्वक संसार में परिभ्रमण करता रहता है। संसारी-जीव अनंत हैं और वे सभी अपने-अपने कर्मानुसार विभिन्न प्रकार के शरीर, ज्ञान, बुद्धि आदि वाले हैं। इन जीवों में ही तीन, चार, दस और सोलह प्रकार की संज्ञाएं पाई जाती हैं और जीव की विभिन्न पर्याओं या Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004097
Book TitleJain Darshan me Vyavahar ke Prerak Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages580
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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