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जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व
अवस्थाओं के सन्दर्भ में जिन-जिन अपेक्षाओं से विचार-विमर्श या अन्वेषण किया जाता है, वे सभी 'मार्गणा' कही जाती हैं। ज्यों-ज्यों जीव का गुणस्थान बढ़ता जाएगा, वह आत्मविशुद्धि के पथ पर चलता चला जाएगा और उसकी संपूर्ण मूलप्रवृत्तियाँ आध्यात्मिक - विकास के शिखर पर पहुंचकर समाप्त हो जाएंगी। वहां न तो कोई कषाय रहेंगे, न कोई लेश्या (शुक्ललेश्या को छोड़कर }, न ही वेद ।
मैथुनसंज्ञा या कामवासना प्राणीय-जीवन का अपरिहार्य अंग है। प्रजाति के संरक्षण में भी वह एक आवश्यक तथ्य है, फिर भी वह मात्र दैहिक-तथ्य है, आध्यात्मिक - विकास के लिए देहातीत या वासना से मुक्ति होना आवश्यक है ।
इतिहास के स्वर्णिम पृष्ठों पर जिनका नाम आज भी दैदीप्यमान है, ऐसे अनेक महापुरुष और महासतियाँ हुए हैं। उन्होंने अपने जीवन में कामवासना का निरसन करके ही अपनी आत्मा का कल्याण किया था । उनका जीवन वर्त्तमान युग में आदर्श - स्वरूप है। यह स्पष्ट है कि जब तक कामवासनाओं का निरसन या क्षय नहीं होगा और ब्रह्मचर्य की साधना नहीं होगी, तब तक आध्यात्मिक विकास संभव नहीं हो सकता। यह शास्त्र - प्रमाणित तथ्य है कि जितने भी महायुद्ध और संग्राम हुए, कुछ को छोड़कर सभी महायुद्ध मैथुन - संज्ञा के कारण ही हुए हैं। सीता, द्रौपदी, रुक्मिणी, पद्मावती, तारा, कांचना, रक्तसुभद्रा, अहिल्या, स्वर्णगुटिका, किन्नरी, सुरूपविद्युन्मति और रोहिणी आदि के लिए जो संग्राम हुए हैं, उनका मूल कारण मैथुन - संज्ञा ही था । दूसरे शब्दों में, मैथुन - संबंधी काम-वासना के कारण ये सब महायुद्ध हुए । कहते हैं- "अब्रह्म का सेवन करने वाले इस लोक में तो नष्ट होते ही हैं, परलोक में भी उनकी दुर्गति होती है,' ,,412 जैसे सीता के रूप में मुग्ध बने रावण को बेमौत मरना पड़ा था और अन्त में नरक में जाना पड़ा था । द्रौपदी को प्राप्त करने के लिए अमरकंका देश के राजा की युद्ध में दुर्गति हुई और उसे अपमान सहन करना पड़ा। 14 मदनरेखा के रूप में पागल बने मणिरथ ने अपने सगे
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प्रश्नव्याकरणसूत्र 4/91
412 'इहलोए ताव णट्ठा, परलोए वि य णट्टा महया ।
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विक्रमाक्रान्तविश्वोऽपि परस्त्रीषु रिरंसया,
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कृत्वा कुलक्षयं प्राप नरकं दशकन्धराः ।
1) स्थानांगसूत्र
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