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________________ जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व 229 "स्वयं कर्म करोति आत्मा-स्वयं तत्फलमश्नुते, स्वयं भ्रमति संसारे, स्वयं तस्माद विमुच्यते।" आत्मा स्वयं ही कर्म करता है एवं स्वयं ही उसका फल भोगता है, कर्म- बन्धनों के कारण भव-भ्रमण करता है तथा पुरुषार्थ के द्वारा मोक्ष प्राप्त करता है। अपने पुरुषार्थ के द्वारा निर्वाण पाना, परमसुख पाना, मुक्ति पाना- यही मानव-जीवन का परम लक्ष्य है। यह तभी संभव है, जब आत्मा के स्वयं के गुणों का विकास हो। ज्यों-ज्यों आत्मगुण प्रकट होने लगता है, त्यों-त्यों कर्मावरण हटता जाता है। आत्मा के गुणों के विकास की भूमिकाओं की क्रमिक अवस्थाओं को जैन-दर्शन में 'गुणस्थान' कहा गया है। वस्तुतः, गुणस्थान शब्द जैनदर्शन का पारिभाषिक शब्द है। श्वेताम्बर-परम्परा में सर्वप्रथम समवायांग में जीवस्थान के नाम से इसका उल्लेख हुआ है। 408 समयसार में गुणस्थान को जीवरस या जीव के परिणाम (मनोदशाएँ) कहा गया है।409 गोम्मटसार में 'गुण' शब्द को जीव का पर्यायवाची मानकर जीव की अवस्थाओं को ही गुणस्थान कहा गया है। यहाँ एक बात स्पष्ट होती है कि आत्मा के आध्यात्मिक- विकास की दृष्टि से जिन विभिन्न अवस्थाओं की चर्चा की जाती है, उनके लिए गुणस्थान शब्द परवर्तीकाल में ही रूढ़ हुआ है। उपर्युक्त समग्र चर्चा से स्पष्ट है कि जैनदर्शन में 'गुण' शब्द का प्रयोग संसार, इन्द्रियों के विषय, बन्धन के कारण कर्मों की उदयजन्य अवस्थाएँ, कर्मविशुद्धि के स्थान, आत्मा की विशुद्धि की अवधारणा और आध्यात्मिक-विकास की अवस्थाएँ आदि विभिन्न अर्थों में हुआ है। आचारांगसूत्र में कहा गया है -"जो गुण है, वह संसार है और जो संसार है, वह गुण है।" यहाँ 'गुण' शब्द संसार-परिभ्रमण का वाचक माना गया है। वस्तुतः देखा जाए, तो सोलह प्रकार की संज्ञाएं व्यक्ति के जीवन में सदा व्यक्त-अव्यक्त रूप से विद्यमान हैं, अवसर और अभिव्यक्ति के उपस्थित होने पर वे व्यक्त हो जाती हैं। 408 कम्मविसोहिमग्गणं पडुच्च चउद्दस जीवट्ठाण पण्णता ........ | - समवायांग-14/15, . मधुकरमुनि 409 समयसार, लेखक- कुन्दाकुन्दाचार्य, गाथा क्र. 55 410 गोम्मटसार. जीवकाण्ड, गाथा 8 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004097
Book TitleJain Darshan me Vyavahar ke Prerak Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages580
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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