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जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व
सभी चिन्तकों ने व्यभिचार, विषयवासना, विलासिता की भर्त्सना की है। बाइबिल में भी यह स्वर मुखरित हुआ है। उसी प्रकार, मुस्लिम धर्म में भी विलासिता को निन्दनीय माना गया है।
अनियन्त्रित कामवासना मानव के संस्कारों को विकृत बनाती है। आज चलचित्रों के दृश्य व्यक्ति की विषयवासना को उद्दीप्त करते हैं। उत्तराध्ययनसूत्र का 'ब्रह्मचर्यसमाधि अध्ययन'407 ब्रह्मचर्य का महत्त्व प्रतिष्ठित करता है। इसमें वैज्ञानिक रूप से उस वातावरण से दूर रहने की प्रेरणा दी गई है, जिससे विकार-वासना जाग्रत होने की संभावना हो। यद्यपि उत्तराध्ययनसूत्र के युग में दूरदर्शन टीवी, फिल्म का आविष्कार नहीं हुआ था, तथापि उसमें अश्लील दृश्य देखने का निषेध किया गया है। ब्रह्मचर्य की साधना वासना-जय की साधना है। इस साधना के माध्यम से ही व्यक्ति 'स्व' का ज्ञान कर शैलेषी-अवस्था तक पहुंच सकता है।
6. व्यक्ति का आध्यात्मिक-विकास और काम-वासना -
व्यक्ति का आध्यात्मिक-विकास जीवन का वह सर्वोच्च शिखर है, जहाँ पहुंचकर आत्मा कर्मबंधन में नहीं बंधती है और अपने शुद्ध स्वरूप में लीन हो जाती है। वहाँ न तो कोई इच्छा है, न कोई आकांक्षा, न कोई शरीर और न कोई लिंग। आध्यात्मिक-विकास जीवन का अन्तिम सोपान है। उस सोपान तक पहुंचते ही व्यक्ति का जीवन सफल और सार्थक हो जाता है। ठीक इसके विपरीत, कामवासना एक ऐसी भावात्मक - इच्छा, आकांक्षा, लालसा और चाहना है, जो व्यक्ति के आध्यात्मिक विकास को रोकती है और पुन:-पुनः नए कर्मों के बंधन के कारण वह अपने लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर पाता। यहाँ यह चिंतन उपस्थित होता है कि किस प्रकार से जीवात्मा अपना आध्यात्मिक विकास करे? भारतीय जैनदर्शन में व्यक्ति की आध्यात्मिक-विशुद्धि के विभिन्न स्तरों का निर्धारण करने के लिए जैनदर्शन में गुणस्थान की अवधारणा को प्रस्तुत किया है। उसमें व्यक्ति के आध्यात्मिक विकास का मूल्यांकन इसी अवधारणा के आधार पर होता है।
यह एक प्रकार का मापदण्ड है, थर्मामीटर है, जिसके द्वारा आत्मा के विकास की स्थिति को जाना जा सकता है। कहा गया है -
407 उत्तराध्ययनसूत्र- 16/1-16
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