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जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व
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हो, भीतर से तो अत्यन्त ही वीभत्स है। बाहर की चमड़ी उतर जाए, तो उसकी ओर एक क्षण का भी आकर्षण नहीं रहेगा। अब्रह्म के पाप से बचने के लिए हमेशा अशुचि-भावना से अपनी आत्मा को भावित करना चाहिए।
20. विजातीय-सजातीय स्पर्श-त्याग -
ब्रह्मचर्य-पालन के इच्छुक व्यक्ति को विजातीय और सजातीय के अंगोपांग के स्पर्श का भी त्याग करना चाहिए। इस स्पर्श के पाप में हस्त-मैथुन का पाप जीवन में फलता-फूलता है और व्यक्ति स्वप्नदोष आदि का शिकार बनकर सत्त्वहीन और शक्तिहीन बन जाता है।
21. परलोक का विचार करें -
अब्रह्म के सेवन से आत्मा को परलोक में भयंकर कटु विपाक भुगतने पड़ते हैं। नरक में परमाधामी देवता धग-धगायमान लोहे की पुतलियों का आलिंगन करने हेतु तीव्र दबाव डालते हैं। जीते-जी चमड़ी उतार दी जाती है। यहाँ कामभोग में क्षणभर का सुख है, किन्तु परिणामस्वरूप नरक में लाखों-करोड़ों-अरबों वर्षों तक भयंकर यातनाएं भुगतना पड़ती हैं।
22. भव-आलोचना -
__पाप के पश्चाताप में आत्मा के ऊर्वीकरण की अपूर्व शक्ति रही हुई है। मोह व अज्ञानता के कारण जो भूलें हो चुकी हैं, उनको हृदय से स्वीकार करना चाहिए और भविष्य में उन भूलों का पुनरावर्त्तन न हो जाए, इसके लिए अत्यंत ही सावधान रहना चाहिए।
उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि ब्रह्मचर्य की साधना और वासना पर जय हम मन की एकाग्रता और व्रत की दृढ़ संकल्पता के माध्यम से कर सकते हैं, क्योंकि आगम-साहित्य में काम-भोग के त्याग को ब्रह्मचर्य माना है। काम और भोग- ये दोनों पर्यायवाची नहीं हैं। स्पर्शन और रसना- इन दो इन्द्रियों के विषयों को 'काम' कहा गया है तथा घ्राण, चक्षु
और कर्ण-इन्द्रियों के विषयों को 'भोग' माना गया है। काम और भोग में पांचों इन्द्रियों के विषय का परित्याग ही ब्रह्मचर्य है। सम्यक रूप से इन्द्रियों को वश में कर ब्रह्मचर्य की साधना की जा सकती है। विश्व के
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