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जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व
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होना चाहिए। बार- बार भोजन करने से, अतिमात्रा में आहार लेने से एवं मादक भोजन करने से कामविकार जाग्रत होते हैं, अतः साधक को अपने दैनिक जीवन में भी तप का आश्रय लेना चाहिए। साधु के लिए दशवैकालिक में 'एगभतं च भोयणं 15 दिन में एक बार सात्त्विक भोजन } का जो विधान किया गया है, वह एकदम युक्तिसंगत है। दिन में एक बार सात्त्विक भोजन लेने से शरीर के लिए आवश्यक ऊर्जा-शक्ति की भी प्राप्ति हो जाती है और दैनिक आराधना - साधना में भी नियमितता रहती है। कामवासनाओं का भोजन के साथ सीधा संबंध है । तष के द्वारा आहार - संयम होते ही काम पर आसानी से विजय पाई जा सकती है। कामवासना पर विजय प्राप्त करने के लिए आयंबिल का तप एक रामबाण उपाय है। आयंबिल के भोजन से रसना पर तो विजय मिलती ही है, साथ ही, काम पर विजय भी प्राप्त की जा सकती है, अतः साधक को आयंबिल, या प्रतिदिन एक विगई का त्याग करना चाहिए। साधक को अपने भावब्रह्मचर्य के पालन के लिए विवेकपूर्ण तप-धर्म का आचरण अवश्य करना चाहिए ।
18. कायोत्सर्ग
कायोत्सर्ग की साधना के द्वारा भी भटकते हुए मन को नियंत्रित किया जा सकता है । मन को केन्द्रित करने के लिए कायोत्सर्ग श्रेष्ठ साधना है। काया के उत्सर्ग के द्वारा काया के ममत्व का त्याग करना होता है। जहाँ काया की ममता नहीं रहेगी, वहाँ कामवासना का अस्तित्व भी कैसे टिक पाएगा। भगवान् महावीर प्रभु भी अपने छद्मस्थ - काल में अधिकांश समय कायोत्सर्ग की साधना में ही बिताते थे। खड़े-खड़े लंबे समय तक कायोत्सर्ग करने से मन का भटकाव रुक जाता है और साधक आत्मोन्नति के शिखर पर चढ़ जाता है ।
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19. अशुचि - भावना से मन को भावित करें
मानव-शरीर के भीतर भयंकर अशुचि है । मल-मूत्र, हाड़-मांस से यह देह भरा हुआ है। ऊपर रही गौरवर्णीय चमड़ी का आकर्षण परिणाम में तो अत्यन्त ही खतरनाक है । स्त्री- देह बाहर से कितना ही सुंदर क्यों न
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दशवैकालिकसूत्र - 6, गाथा-23 योगशास्त्र
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