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जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व
भय पैदा होता है। इसी नियम के अनुसार, श्रमण - जीवन में एकाकी विहार का निषेध है और गुर्वादि के सान्निध्य में ही बैठने का विधान है।
14. रुचिपूर्वक सर्जन में लीन रहें
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मन को सदा वशीभूत करने के लिए अपनी अभिरुचि का काम उसे सतत करते रहना चाहिए। अपनी रुचिपूर्वक सर्जन में लीन मन भटकेगा नहीं । स्तुति-सर्जन में लीन शोभनमुनि को यह पता ही नहीं चला कि उनके पात्र में किसी ने पत्थर रख दिया । भामती टीका के सृजन में लीन वाचस्पति मिश्र इस बात को भी भूल चुके थे कि वे विवाहित हैं । साहित्य, काव्य, स्तुति, गीत, कला आदि में लीन मन अन्य विकृत विचारों से मुक्त बन जाता है। इससे स्पष्ट है कि मन को किसी सर्जनात्मक कार्य में लगा दें, तो किसी प्रकार के अशुभ विचार छू नहीं सकते ।
15. आत्म-स्वरूप विचार
17. तप
निश्चयदृष्टि से देखा जाए, तो आत्मा न पुरुष है और न स्त्री । यह स्त्री है, यह पुरुष है - यह तो दैहिक-धर्म है। स्त्री व पुरुष - दोनों के देह में रही हुई आत्मा तो शुद्ध चैतन्यस्वरूप ही है। प्रेम तो आत्मा से होना चाहिए, क्योंकि वह सहज है। देह से प्रेम तो औपाधिक है। मैं देह नहीं, किन्तु आत्मा हूँ । देह के धर्म मेरे वास्तविक धर्म नहीं हैं, अतः दैहिक-धर्मों में आकर्षित होना अज्ञानस्वरूप है। इस प्रकार, आत्म-स्वरूप का चिंतन करने से भी आत्मा विकारमुक्त बनती है और ब्रह्मचर्य की साधना सुगम बनती है।
16. व्रत - स्वीकार
प्रतिज्ञा के स्वीकार से मनोबल मजबूत बनता है । जीवनपर्यन्त अथवा वर्ष में अमुक दिनों में ब्रह्मचर्यपालन का नियम कर अपने मन को अशुभ विचारों से रोक सकते हैं।
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ब्रह्मचर्य की साधना में तप-धर्म का विशेष महत्त्व है। तप की साधना से भीतर की वासनाएं निर्जरित हो जाती हैं। काम-क्रोध आदि विकार तप से जलकर भस्मीभूत हो जाते हैं, शर्त यह है कि तप विवेकपूर्ण
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