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________________ जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व भी जुड़ा हुआ है । पाद - विहार, गोचरी हेतु परिभ्रमण स्थण्डिल भूमि - गमन आदि योग और उचित श्रम के ही अंग हैं । वर्त्तमान युग में आधुनिक साधनों की अभिवृद्धि के साथ-साथ मनुष्य का शारीरिक श्रम दिन-प्रतिदिन घटता जा रहा है, इसके फलस्वरूप शरीर में विकृति पैदा होती है । ब्रह्मचर्य की साधना उचित प्रकार से करने के लिए साधक द्वारा प्राणायाम, शीर्षासन, सिद्धासन, पद्मासन आदि के द्वारा भी योग्य श्रम किया जा सकता है। 8. नियमितता व मर्यादित निद्रा शारीरिक श्रम के निवारण के लिए निद्रा की भी आवश्यकता रहती है । निद्रा से क्षय हुई ऊर्जा का पुनः संचय होता है, इसलिए स्वाध्याय, आराधना और मन को एकाग्र करने के लिए ब्रह्मचारी की निद्रा नियमित होना चाहिए। देर रात्रि तक जागने से और अनियमित रूप से नींद लेने से शरीर का सन्तुलन टूटता जाता है। वास्तव में तो, रात्रि के प्रथम प्रहर के बाद सो ही जाना चाहिए और सूर्योदय के दो मुहूर्त्त पूर्व, अर्थात् ब्राह्ममुहूर्त में निद्रा का त्याग कर देना चाहिए। कहा है - प्रथम प्रहर में सब कोई जागे, दूसरे प्रहर में भोगी । तीसरे प्रहर में तस्कर जागे, चौथे प्रहर में योगी ।। 223 अपनी भावशुद्धि का परमात्मा के साथ अनुसंधान करने के लिए रात्रि का अंतिम प्रहर अत्यन्त श्रेष्ठ है, अर्थात् ब्राह्ममुहूर्त में जागकर परमात्मा के साथ सम्बन्ध जोड़ने का प्रयास करना चाहिए । जब परमात्मा में मन लगेगा, तो वासनाओं पर नियंत्रण हो जाएगा। 9. शारीरिक - आवेग को नहीं रोकें Jain Education International - मल-मूत्र आदि जो शारीरिक - आवेग हैं, उन्हें रोकने का प्रयास नहीं करना चाहिए। उन्हें रोकने से नुकसान होता है। For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004097
Book TitleJain Darshan me Vyavahar ke Prerak Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages580
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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