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________________ जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व 5. सात्विक आहार - आहार प्रत्येक प्राणी की एक अपरिहार्यता है। चाहे व्यक्ति गृहस्थ हो या मुनि - दोनों के लिए आहार करना आवश्यक होता है, परंतु आहार की शुद्धता और सात्त्विकता साधना में अतिआवश्यक है। तामसिक व राजसी- आहार मन को विकृत बनाता है, अतः उन अनर्थों से बचने के लिए सदैव सात्त्विक खुराक ही लेना चाहिए। उत्तराध्ययनसूत्र में कहा हैब्रह्मचर्यरत भिक्षु शीघ्र ही कामवासना को बढ़ाने वाले प्रणीत भोजन-पान का सदैव त्याग करे। ब्रह्मचारी को घी, दूध आदि रसों का अधिक सेवन नहीं करना चाहिए, क्योंकि रस प्रायः उद्दीपक होता है। उद्दीप्त पुरुष के निकट काम-वासनाएं वैसे ही चली आती हैं, जैसे स्वादिष्ट फल वाले वृक्ष के पास पक्षी चले जाते हैं।403 6. रात्रि भोजन का त्याग - ब्रह्मचर्य-व्रत की साधना के लिए ब्रह्मचारी को रात्रि में भोजन नहीं लेना चाहिए। यदि शक्य हो, तो दिन में एक बार ही भोजन लेना चाहिए। संध्या के भोजन व शयन के बीच तीन से चार घंटों का अंतर अवश्य होना चाहिए, चूंकि असमय किया गया आहार अनुचित विकृति पैदा करता है, अतः ब्रह्मचारी साधक को भावनाशुद्धि के लिए रात्रिभोजन का त्याग करना चाहिए और कम खाना चाहिए, ताकि भोजन सुचारू रूप से पच सके। 'कम खाना गुणकारी होता है 1404 7. उचित श्रम - __ ब्रह्मचर्य-पालन के लिए शरीर का उचित श्रम जरूरी है। श्रम के अभाव में व्यक्ति में वासना प्रबल हो जाती है, इसलिए श्रमण-जीवन की दैनिक समस्त क्रियाओं को योग्य आसन, मुद्रा, काउस्सग (कायोत्सर्ग) आदि के द्वारा किया जाता है, इसलिए आवश्यक श्रम स्वतः मिल जाता है। जैनदर्शन के प्रत्येक अनुष्ठान के साथ भिन्न-भिन्न आसन, मुद्रा का योग 402 वही - 16/7 रसा पगामं न निसेवियव्वा, पायं रसा दित्तिकारा नराणं। ___दित्तं च कामा समभिद्दवंति दुभं जहा साऊफलं व पक्खी।। - उत्तराध्ययन - 32/8 404 गुणकारित्तणाओ ओमं भोत्तव्वं । - निशीथचूर्णि -2951 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004097
Book TitleJain Darshan me Vyavahar ke Prerak Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages580
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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