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जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व
2. मंत्र - जाप
मन का रक्षण करे, वह मंत्र कहलाता है । जहाँ-तहाँ भटक रहे अपने मन को मंत्र के द्वारा केन्द्रित करने का प्रयास करना चाहिए । नमस्कार - महामंत्र अथवा नेमिनाथ प्रभु आदि के मंत्र जाप से अपने मन को स्थिर करने से मन के अशुभ विचार स्वतः दूर हो जाएंगे, फलस्वरूप ब्रह्मचर्य पालन में दृढ़ता आएगी । ब्रह्मचर्य की रक्षा के लिए नवकार महामंत्र के प्रभाव से सेठ सुदर्शन की सूली सिंहासन बन गई, देव - दुन्दुभि बजने लगी, शील की सुगन्ध फैलने लगी, सदाचार की वाणी मुखरित हो उठी, आकाश से फूल बरसने लगे, क्योंकि सुदर्शनं श्रावक ने परस्त्री के पास रहने पर भी निष्कलंक मनोवृत्ति रखी और अपने ब्रह्मचर्य में दृढ़ रहे ।
3. आत्म- ध्यान का चिंतन
आत्मा स्वयं निर्विकार चैतन्यस्वरूप है । अवकाश के समय में आत्मा के शुद्ध चैतन्य स्वरूप का ध्यान करने से मन की अशुभ वृत्तियाँ विलीन हो जाती हैं। अपनी आत्मा में ही निर्विकार चैतन्यस्वरूप परमात्मा छिपे हुए हैं, - इस प्रकार की आत्मजाग्रति व चिन्तन से ब्रह्मचर्य - पालन में अपूर्व बल मिलता है।
4. शुभ प्रवृत्ति
'काम' का औषध काम है । कहावत है 'Empty mind is devil's workshop', खाली दिमाग शैतान का घर है । ब्रह्मचर्य पालन के लिए अपने तन - मन को सतत शुभ प्रवृत्तियों में जोड़े रखने से कामवासना प्रदीप्त नहीं होती, क्योंकि अवकाश मिलते ही तन-मन अनादि के कुसंस्कारों . में प्रवृत्त हो जाता है, इसलिए भगवान् महावीर ने श्रमण - श्रमणियों के लिए प्रतिदिन चार प्रहर स्वाध्याय की आज्ञा दी है. सतत् शास्त्र- स्वाध्याय में लीन रहने से अब्रह्म के विचार मन को स्पर्श नहीं करते हैं और मन शुद्ध बनता जाता है ।
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अकलंकमनोवृत्तेः परस्त्रीसन्निधावपि । सुदर्शनस्य किं ब्रमः सुदर्शनसमुन्नते । । - उत्तराध्ययनसूत्र
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योगशास्त्र, गाथा 101
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