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जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व
मूल एवं अनेक दोषों का आश्रव होने के कारण वह पुनः संयम में स्थिर हो गए।
5.
अहिंसा एवं सत्य के पालन के लिए ब्रह्मचर्य की साधना आवश्यक -
यह बात निश्चित है कि वासना-जय की प्रक्रिया में, अहिंसा एवं सत्य के पालन में, ब्रह्मचर्य प्रबल साधन है। शास्त्रीय-भाषा में कहें तो जिसने एक ब्रह्मचर्य- व्रत की साधना कर ली, उसने सभी उत्तमोत्तम व्रतों की आराधना की है -ऐसा समझना चाहिए। तात्पर्य यह है कि एक ब्रह्मचर्यव्रत के भंग होने पर दूसरे प्रायः सभी व्रतों का भंग हो जाता है, इसलिए निपुण साधक को अहिंसा, सत्य आदि व्रतों की सम्यक् साधना के लिए ब्रह्मचर्यव्रत का सदा आचरण करना चाहिए, क्योंकि संसार के विषयभोग क्षणभर के लिए सुख देते हैं, किन्तु बदले में चिरकाल तक दुःखदायी होते हैं। 393 मन से, वचन से और काया से अहिंसा का पूर्ण पालन करना हो, तो बिना ब्रह्मचर्य के यह संभव नहीं है। अहिंसा-पालन का अर्थ है- बाह्य और आन्तरिक संयमवृत्ति। इससे देहासक्ति क्षीण होती है, इस कारण स्त्री-विषयक और पुरुष-विषयक विकार भी शान्त हो जाते हैं। संयम और तप अहिंसा भगवती के दो चरण हैं। संयम और तप के बिना अहिंसा का सुचारू रूप से पालन दुष्कर है। ब्रह्मचर्य का अर्थ संयम की पराकाष्ठा है, इसलिए संयमवृत्ति का हास या देहासक्ति होना अब्रह्मचर्य है और वह हिंसा भी है।
वासना-जय की प्रक्रिया कैसे ?
___ अनादिकाल के अभ्यास के कारण प्रत्येक आत्मा में काम, क्रोध, लोभ आदि मूलप्रवृत्तियां कुसंस्कार रहे हुए हैं। जब तक आत्मा में से ये कुसंस्कार मूल सहित नहीं उखाड़े जाएंगे, तब तक इन कुसंस्कारों के जाग्रत होने की पूरी-पूरी संभावना रहती है। जिस प्रकार दूध में घी रहता है, उसी प्रकार ईंधन में अग्नि छुपी हुई है, परन्तु अग्नि का निमित्त पाकर ही ईंधन में से अग्नि प्रकट होती है, पेट्रोल में भयंकर आग रही हुई है, लेकिन जब तक उसे चिनगारी नहीं मिले, तब तक वह पेट्रोल पानी की तरह शीतल दिखाई देता है। मोहाधीन संसारी आत्मा के भीतर काम, क्रोध
393 खणमित्तसुक्खा बहुकालदुक्खा। - उत्तराध्ययनसूत्र- 14/13
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