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________________ जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व 4. ऋषि-मुनियों द्वारा ब्रह्मचर्य का विधान और आधुनिक युग प्राचीन ऋषि-मुनियों ने ब्रह्मचर्य की प्रेरणा उस समय के समाज को इसलिए दी कि पशुओं में भी प्रायः ऋतुकाल के सिवाय अन्य समय में मैथुन - क्रिया नहीं होती, किन्तु मनुष्य होकर भी अगर ब्रह्मचर्य मर्यादा को स्वीकार न करे, तो फिर मनुष्य और पशु में अन्तर ही क्या रह जाएगा। वर्त्तमान युग में मनुष्य कामवासना - सेवन में पशुओं को भी मात कर गया है। प्राकृतिक - मर्यादाओं को ठुकराकर वह जब भी इच्छा हो, उच्छृंखल रूप से भोग - वासना में प्रवृत्त हो जाता है, इसलिए नीतिकारों, आयुर्वेदशास्त्रियों और धर्म - शास्त्रों ने और ऋषि-मुनियों ने मनुष्य के लिए अपनी वासनाओं पर जय पाने के लिए ब्रह्मचर्य की साधना का विधान किया है। प्राणीमात्र में मानव श्रेष्ठ है, क्योंकि अन्य प्राणी तो प्रायः निसर्ग के अधीन हैं, जबकि मानव चाहे, तो प्रकृति को भी अपने अधीन कर सकता है । वर्त्तमान युग का मानव अनेक वैज्ञानिक उपलब्धियों के कारण प्रकृति पर विजय प्राप्त कर रहा है और करता जा रहा है । वर्त्तमान युग की विकृतियों और प्रबल कामवासना के वातावरण को देखते हुए मानव को प्रकृति का गुलाम न बनकर ब्रह्मचर्य या सर्वेन्द्रिय-संयम के द्वारा प्रकृति पर विजय प्राप्त करना चाहिए । यहाँ रथनेमि का उदाहरण उल्लेख करने योग्य है। रथनेमि 392 गिरनार गुफा में ध्यानस्थ थे, किन्तु वर्षा से वस्त्र भींग जाने के कारण उन्हें सुखाने के लिए सती राजीमती भी अनजाने में उसी गुफा में प्रवेश करती है और वस्त्रों को सुखाने लगती है। तभी, राजीमती के अंगोपांग को देखकर रथनेमि का मन चलायमान हो जाता है। - राजीमती से वह, मुनिदीक्षा छोड़कर, ब्रह्मचर्य को तिलांजलि देकर कामभोग की तृप्ति के लिए प्रार्थना करता है । उस समय राजीमती साध्वी कहती हैं जिन भोगों को तुच्छ समझकर तुमने वमन कर दिया था, उन्हें ही पुनः अंगीकार करना, अर्थात् अब्रह्म का सेवन करना चाहते हो, इससे तो अच्छा है कि अगन्धनसर्प {जो उगले हुए विष को पुनः चूसकर नहीं पीता } की तरह मरण को स्वीकार कर लो। यह शब्द सुनकर और अब्रह्मचर्य को अधर्म का 392 क) उत्तराध्ययनसूत्र 22/43-44 ख) दशवैकालिकसूत्र - 2 / 7-8 217 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004097
Book TitleJain Darshan me Vyavahar ke Prerak Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages580
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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