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जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व
में ब्रह्मचर्य को भी एक यम माना है।390 भगवान् ऋषभदेव से लेकर भगवान् महावीर तक चौबीस तीर्थंकरों ने आचार-योग में ब्रह्मचर्य को साधु के लिए महाव्रत के रूप में और गृहस्थ के लिए अणुव्रत के रूप में स्वीकार किया
किसी भी व्रत या नियम के पालन के लिए जप-तप-ध्यान की साधना के लिए मन की पवित्रता आवश्यक है और मन की पवित्रता ब्रह्मचर्य से आती है। मनुष्य का मन पवित्र नहीं होगा, तो इधर-उधर की वासना की गलियों में भटकता रहेगा तथा विविध वासनाओं एवं इन्द्रियों के विषयों के आकर्षण में घूमते रहने के कारण एकाग्रता समाप्त हो जाएगी, उसका मन विश्रृंखलित हो जाएगा। विश्रृंखलित मन किसी भी साधना को ठीक ढंग से नहीं करने देगा, इसलिए शुद्ध साधना का सिंहद्वार ब्रह्मचर्य है। ब्रह्मचर्य के बिना किसी भी साधना में प्रगति नहीं हो सकती।
3. ब्रह्मचर्य : जीवन अमरत्व की साधना है -
महापुरुषों ने ब्रह्मचर्य को जीवन और कामवासना (अब्रह्म) को मृत्यु कहा है। ब्रह्मचर्य अमृत है और अब्रह्मचर्य या वासना पर असंयम विष है। ब्रह्मचर्य अनुपम सुख-शान्ति का मूलस्रोत है, जबकि वासना अशान्ति और दुःख का अपार सागर है। ब्रह्मचर्य आत्मा का शुद्ध प्रकाश है, जबकि वासना कालिमा है। ब्रह्मचर्य उत्तम तप, नियम, ज्ञान, दर्शन, चारित्र, सम्यक्त्व एवं विनय का मूल है, जबकि अब्रह्मचर्य अज्ञान, भ्रान्ति, अश्रद्धा, अविनय, भोग और रोग का मूल है। किम्पाकवृक्ष का फल वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श में बड़ा मनोहर, मधुर और सुगन्धित लगता है, खाने में भी स्वादिष्ट होता है, जिससे मन को भी संतोष मिलता है, मगर खाने के बाद वह व्यक्ति जी, भी नहीं सकता, कुछ ही देर में उसका प्राण निकल जाता है। इसी प्रकार, विषयसुख सेवन करते समय बड़ा मनोहर लगता है, लेकिन बाद में उसका परिणाम बहुत ही भयंकर होता है, इसलिए ज्ञानी पुरुषों ने ब्रह्मचर्य को अमरत्व की साधना के सदृश्य कहा है।
390 अहिंसासत्यास्तेयब्रह्मचर्यापरिग्रहा यमाः । – पातंजलयोगसूत्र - 2/30
रम्यमापातमात्रे, यत्परिणामेऽतिदारूणम् । किम्याक फल संकाशं, तत्कः सेवेत मैथुनम् ? – योगशास्त्र- 2/77
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