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जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व
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उत्तमोत्तम गुणों की आवश्यकता होती है, वे सब ब्रह्मचर्य से प्राप्त होते हैं। ब्रह्मचर्य की साधना का साधक यदि गृहस्थाश्रम में प्रवेश करेगा, तो वहां भी अपनी जीवन-यात्रा सफलतापूर्वक सम्पन्न कर सकेगा और यदि वह साधु-जीवन अंगीकार करेगा, तब भी अपनी जीवन-यात्रा श्रेष्ठ रीति से स्वपर-कल्याण-साधना के माध्यम से पार करेगा। ब्रह्मचर्य की साधना से शरीर पर उद्भूत प्रभाव पड़ता है। आचार्य हेमचन्द्रजी ने योगशास्त्र389 में शारीरिक-शक्तियों के विकास का मूल स्रोत ब्रह्मचर्य को बताते हुए कहा है
चिरायुषः, सुसंस्थानां, दृढ़संहनना नराः । तेजस्विनो महावीर्या भवेयुर्ब्रह्मयर्चतः ।।
ब्रह्मचर्य की साधना से मनुष्य चिरायु होते हैं, उनके शरीर का संस्थान सुन्दर-सुडौल हो जाता है, उनका शारीरिक संहनन मजबूत हो जाता है, वे तेजस्वी और महाशक्तिशाली होते हैं।
ब्रह्मचर्य की साधना हमारे आरोग्य-मंदिर का आधार-स्तम्भ है। आधार स्तम्भ के टूटने से जिस प्रकार सारा भवन ढह जाता है, वैसे ही ब्रह्मचर्य के नष्ट होने पर सम्पूर्ण शरीर व साधना का द्रुतगति से नाश हो जाता है। ब्रह्मचर्य ही हमारी सम्पूर्ण विद्या, वैभव, सौभाग्य का आदि कारण है। वासनाजय की प्रक्रिया हमारी श्रेष्ठता, सम्पूर्ण उन्नति और स्वतन्त्रता का बीजमंत्र है।
2. ब्रह्मचर्य की साधना से जीवन में प्रगति
. ज्ञानी गीतार्थ पुरुष के वचनों के माध्यम से कह सकते हैं कि ब्रह्मचर्य की साधना ही जीवन में प्रगति लाती है। ब्रह्मचर्य की साधना के बिना योग, ध्यान, मौन, जाप, तप आदि साधनाएं नहीं हो सकती। योगसाधना में वासना, कामना, आसक्ति और तृष्णा आदि बाधक तत्त्व हैं। इन क्षुद्र वृत्तियों को अपनाकर कोई भी व्यक्ति योग-साधना नहीं कर सकता, इसलिए जो व्यक्ति योग की साधना करना चाहता है तथा उसके द्वारा अपने ध्येय को प्राप्त करने का इच्छुक है, उसके लिए सर्वप्रथम ब्रह्मचर्यसाधना आवश्यक है, इसलिए यम-नियम आदि आठ अंगों में से पांचों यमों
योगशास्त्र - 2/105
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