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जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व
उसकी अभिलाषा मत कर, कहीं ऐसा नहीं हो कि वह तुम्हें अपने कटाक्षों में फंसा ले।"
गांधीवाद की दृष्टि में स्वपत्नीसन्तोष भी ब्रह्मचर्य ही है, क्योंकि विवाह और गृहस्थाश्रम कामवासना को सीमित करने का प्रयास है। विवाह का उद्देश्य केवल विषय-वासनाओं का सेवन ही नहीं है। यही कारण है कि पत्नी को भोग-पत्नी न कहकर धर्मपत्नी कहा गया है। विवाह द्वारा व्यक्ति अपनी इच्छाओं को नियन्त्रित करता है और स्वयं को धर्म-मार्ग में उत्प्रेरित करता है, लेकिन इससे भी आगे बढ़कर जैनदर्शन के समान गांधीवाद भी गृहस्थ-जीवन में पूर्ण ब्रह्मचर्य के पालन की सम्भावना को स्वीकार करता है और उस पर जोर भी देता है। गांधीजी का जीवन स्वयं इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है। इस प्रकार, गांधीवाद और जैनदर्शन मानते हैं कि स्त्री को भी ब्रह्मचर्य-पालन का पुरुष के समान ही अधिकार प्राप्त है। गांधीजी की दृष्टि में ब्रह्मचर्य मन, वचन और काया से सभी इन्द्रियों का संयम है। गांधीवादी ब्रह्मचर्य को मात्र स्त्री-पुरुष सम्बन्ध तक सीमित नहीं मानते, वरन् उसे अधिक व्यापक बनाते हैं। , 1. जीवन की आधारशिला : ब्रह्मचर्य
मनुष्य का यह महान् जीवन ब्रह्मचर्य की आधारशिला पर व्यवस्थित रूप से टिका हुआ है, क्योंकि चरित्र का मूल ब्रह्मचर्य है। मनुष्य के पास विद्वत्ता हो, वक्तृत्व हो, लेकिन चारित्र में वह खोटवाला हो, तो उसका जीवन सफल नहीं हो सकता, न ही वह सुखी और शान्ति से सम्पन्न रह सकता है। पाश्चात्य दार्शनिक हर्बर्ट स्पेन्सर 38 के शब्दों में- "Not education, but character is man's greatest need and man's greatest safe-guard". अर्थात् केवल शिक्षण ही नहीं, मनुष्य का चारित्र ही उसकी सबसे बड़ी आवश्यकता है और जीवन का सबसे बड़ा सुरक्षक है, इसलिए चारित्र को सुरक्षित रखने के लिए ब्रह्मचर्य-पालन और उसकी साधना अतिआवश्यक है। ब्रह्मचर्य से शरीर और मन-दोनों ही सशक्त बनते हैं। जीवन भी निर्भय, सुखी, शान्तिमय एवं शक्ति-सम्पन्न बनता है। विचारों में एवं आचरण में बल भी ब्रह्मचर्य की साधना से ही आता है। धर्मपालन में उद्यम, साहस, शौर्य, उत्साह, बल, धैर्य, सहिष्णुता, क्षमता आदि जिन
387 गांधीवाणी, पृ. 75 388 देवेन्द्र भारती, मासिक पत्रिका, 10 मई 2010, पृ. 11
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