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________________ जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व 213 सुव्यवस्था स्थापित करने हेतु मनीषियों ने 'विवाह-संस्कार 381 और स्वदारसन्तोषव्रत82 का विधान किया है, ताकि वह अपनी विधिवत् विवाहित पत्नी में संतोष करके शेष सभी परस्त्री आदि के साथ मैथुन-विधि का परित्याग करे। इस प्रकार, असीम वासनाओं को प्रस्तुत व्रत के माध्यम से सीमित कर सकते हैं। योगशास्त्र में कहा है -"समझदार गृहस्थउपासक परलोक में नपुंसकता और इहलोक में राजा या सरकार आदि द्वारा इन्द्रियच्छेदन वगैरह अब्रह्मचर्य के कड़वे फल को देखकर या शास्त्रादि द्वारा जानकर परस्त्रियों का त्याग करे और अपनी स्त्री में संतोष रखे।"383 परस्त्री से तात्पर्य अपनी पत्नी के अतिरिक्त अन्य सभी स्त्रियों से है। चाहे थोड़े समय के लिए किसी को रखा जाए, उपपत्नी के रूप में, किसी की परित्यक्ता, व्यभिचारिणी, वेश्या, दासी, किसी की पत्नी अथवा कन्या – ये सभी परस्त्रियाँ हैं। उनके साथ उपभोग करना अथवा वासना की दृष्टि से देखना, क्रीड़ा करना, प्रेमपत्र लिखना, विभिन्न प्रकार के उपहार देना, उन्हें प्राप्त करने का प्रयास करना, उनकी इच्छा के विपरीत कामक्रीड़ा करना व्रत के विरुद्ध है और इच्छा से करना परस्त्रीसेवन है। वाल्मिकी ऋषि ने लिखा है – परस्त्री से अनुचित सम्बन्ध रखने जैसा कोई पाप नहीं है। कविकल गुरु कालिदास ने परस्त्रीसेवन को अनार्यों का कार्य कहा है। आचार्य मनु ने कहा है - इस विश्व में पुरुष के आयुष-बल को क्षीण करने वाला परस्त्री-सेवन जैसा अन्य कोई निकृष्ट कार्य नहीं है। बाईबिल में भी कहा है - जो व्यक्ति परस्त्री के साथ व्यभिचार करता है, वह विवेकशून्य है और स्वयं अपनी आत्मा का हनन करता है। 'ओल्ड टेस्टमेन्ट में कहा है – “पराई स्त्री की सुन्दरता देखकर 381 आचारदिनकर, वर्धमानसूरिकृत, उदय-चौदहवां, निर्णयसागर मुद्रणालय बॉम्बे प्रथम संस्क. ___1922, पृ. 31 382 सदारसंतोसिए अवसेसं सव्वं मेहुणविहिं पच्चक्खाइ। - उपासकदशांगसूत्र- 1/44 383 षष्ठत्वमिन्द्रियच्छेदं, वीक्ष्याब्रह्मफलं सुधीः, भवेत् स्वदार संतुष्टोऽन्यदारान् वा विवर्जयेत्। - योगशास्त्र - 2/76 परदाराभिमर्शातु नान्यत पापतरं महत्। - वाल्मीकि रामायण-338/30 589 अनार्यः परदार व्यवहारः । - अभिज्ञान शाकुन्तलम् 386 नहीदृशमनायुष्यं लोके किंचित् दृश्यते। यादृशं पुरूषस्येह परवसेपसेवनम् ।। - मनुस्मृति-4/134 384 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004097
Book TitleJain Darshan me Vyavahar ke Prerak Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages580
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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