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________________ जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व आदि संस्कार तो पड़े हुए हैं और ऐसा ही प्रतीत होता है, मानों व्यक्ति निष्काम और अक्रोधी बन गया है, परन्तु ज्यों ही शुभ-अशुभ निमित्त मिलते हैं, वे कुसंस्कार तुरंत जाग्रत हो जाते हैं और व्यक्ति कामातुर और धातु बन जाता है। मनुष्य के भीतर जो प्रबल 'कामवासना' रही हुई है, वह कामवासना भी निमित्त पाकर ही जाग्रत होती है। युवावस्था, एकांत, कुसंग, वीभत्स दृश्य, अश्लील - साहित्य तथा स्त्री-संग आदि ऐसे प्रबल निमित्त हैं, जो आत्मा के भीतर रही हुई कामवासना को जाग्रत कर देते हैं। एक छोटी सी चिनगारी क्षणभर में घास के ढेर को जलाकर खाक कर देती है । ड्रायवर की एक छोटी-सी भूल अनेक जिन्दगियों को क्षणभर में नष्ट कर देती है, ठीक इसी प्रकार, एक छोटा-सा अशुभ निमित्त पाकर कामवासना जाग्रत हो जाती है और साधना का पतन कर देती है, जैसे संभूति मुनि 300 अपने चारित्र से पतित हुए और नंदिषेण मुनि 95 बारह वर्ष तक वेश्या के जाल में फंसे रहे। 394 396 जिस प्रकार आहार-संज्ञा को जीतने के लिए तप - धर्म है, भयसंज्ञा को जीतने के लिए अभय-धर्म है, परिग्रहसंज्ञा को जीतने के लिए दान-धर्म है, उसी प्रकार अनादिकाल से आत्मा में रही काम-वासना को जीतने के लिए ब्रह्मचर्य धर्म की साधना बताई है, क्योंकि भगवती आराधना में कहा गया है – “जैसे कुत्ता रक्तहीन अस्थि को चबाता हुआ रस को प्राप्त नहीं करता, किन्तु अपने ही तालु से निकले हुए रक्त को चूसता हुआ सुख मानता है, ठीक उसी प्रकार, कुत्ते की तरह कामी व्यक्ति का भी एक भ्रम होता है कि स्त्रीभोग से उसे सुख मिल रहा है, वास्तव में देखा जाए, तो वह भोग द्वारा अपनी ही शक्ति का व्यय करता है। भर्तृहरि397 ने ठीक ही कहा है – “आदमी भोग को नहीं भोगता है, परंतु भोग ही उसका भोग ले लेता है ।" ईंधन से अग्नि और जल से सागर कभी तृप्त नहीं होता, ठीक इसी प्रकार, भोग से आत्मा कभी तृप्त नहीं 394 उत्तराध्ययन चूर्ण 13, 395 उपदेशमाला, गाथा 54 396 ण लहदि जह लेहंतो, सुक्खल्लहयमट्ठियं रसं सुणहो । से सग - लालुग रूहिरं लेहंतो मण्णए सुक्खं ।। महिलादि भोगसेवी, ण लहदि किंचि वि सुहं तथा पुरिसो । सो मण्णदेवराओ, सगकायपरिस्समं सुक्खं । । 397 भोगाः न भुक्ताः वयमेव भुक्ताः । - भर्तृहरि Jain Education International 219 214 -भगवती आराधना- 1255 / 56 For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004097
Book TitleJain Darshan me Vyavahar ke Prerak Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages580
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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