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जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व
4. अतिमात्रा में आहार- पानी का सेवन या सरस स्निग्ध भोजन का उपयोग नहीं करना चाहिए ।
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5. निर्ग्रथ मुनि को स्त्री, पशु या नपुंसक से युक्त शय्या या आसनादि का सेवन नहीं करना चाहिए ।
समवायांगसूत्र में वर्णित पाँच भावनाएँ इस प्रकार हैं
1. स्त्री - पुरुष - नपुंसक संसक्त शय्या और आसन का वर्जन करे । 2. स्त्रीकथा विधर्जन करे ।
3. स्त्रियों की इन्द्रियों का अवलोकन न करे ।
4. पूर्वक्रीड़ित क्रीड़ाओं का स्मरण न करे ।
5. प्रणीत (स्निग्ध - सरस) आहार नहीं करे ।
प्रश्नव्याकरणसूत्र के अनुसार
1. विविक्तशयनासन ।
2. स्त्रीकथा का परित्याग ।
3. स्त्रियों के रूपादि को देखने का परिवर्जन । 4. पूर्वकाल में भुक्त भोगों के स्मरण से विरति । 5. सरस बलवर्द्धक आदि आहार का त्याग । आचारांगचूर्णि के अनुसार -
1. निर्ग्रथ प्रणीत भोजन तथा अतिमात्रा में आहार न करे ।
2. निर्ग्रथ शरीर की विभूषा करने वाला न हो ।
3. निर्ग्रथ स्त्रियों के मनोहर और मनोरम अंगों को नहीं देखे ।
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4. निर्ग्रथ स्त्री, पशु और नपुंसक से संसक्त शय्या और आसन का सेवन न करे ।
5. स्त्रियों की (कामभोगजनक) कथा न करे।
आवश्यकचूर्णि के अनुसार -
1. आहार पर संयम रखे।
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