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________________ जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व 4. अतिमात्रा में आहार- पानी का सेवन या सरस स्निग्ध भोजन का उपयोग नहीं करना चाहिए । 206 5. निर्ग्रथ मुनि को स्त्री, पशु या नपुंसक से युक्त शय्या या आसनादि का सेवन नहीं करना चाहिए । समवायांगसूत्र में वर्णित पाँच भावनाएँ इस प्रकार हैं 1. स्त्री - पुरुष - नपुंसक संसक्त शय्या और आसन का वर्जन करे । 2. स्त्रीकथा विधर्जन करे । 3. स्त्रियों की इन्द्रियों का अवलोकन न करे । 4. पूर्वक्रीड़ित क्रीड़ाओं का स्मरण न करे । 5. प्रणीत (स्निग्ध - सरस) आहार नहीं करे । प्रश्नव्याकरणसूत्र के अनुसार 1. विविक्तशयनासन । 2. स्त्रीकथा का परित्याग । 3. स्त्रियों के रूपादि को देखने का परिवर्जन । 4. पूर्वकाल में भुक्त भोगों के स्मरण से विरति । 5. सरस बलवर्द्धक आदि आहार का त्याग । आचारांगचूर्णि के अनुसार - 1. निर्ग्रथ प्रणीत भोजन तथा अतिमात्रा में आहार न करे । 2. निर्ग्रथ शरीर की विभूषा करने वाला न हो । 3. निर्ग्रथ स्त्रियों के मनोहर और मनोरम अंगों को नहीं देखे । — Jain Education International - 4. निर्ग्रथ स्त्री, पशु और नपुंसक से संसक्त शय्या और आसन का सेवन न करे । 5. स्त्रियों की (कामभोगजनक) कथा न करे। आवश्यकचूर्णि के अनुसार - 1. आहार पर संयम रखे। For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004097
Book TitleJain Darshan me Vyavahar ke Prerak Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages580
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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