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________________ जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व 2. विभूषा को वर्जन करे। 3. स्त्रियों की ओर न देखे । 4. स्त्रियों का संस्तव / परिचय न करे । 5. क्षुद्र (काम) कथा न करे । तत्त्वार्थसूत्र में पाँच भावनाएँ इस प्रकार वर्णित हैं 1. स्त्रियों के प्रति रागोत्पादक कथा - श्रवण का त्याग करे । 2. स्त्रियों के मनोहर अंगों को देखने का त्याग करे । - 3. पूर्वभुक्त भोगों के स्मरण का त्याग करे । 4. गरिष्ठ और इष्ट रस का त्याग करे । 5. शरीर - संस्कार का त्याग करे । सर्वार्थसिद्धि तथा राजवार्त्तिक में भी भावनाओं का यही क्रम दिया गया है । Jain Education International भावनाओं में, ब्रह्मचर्य में सहायक तत्त्वों का चिन्तन और मनन करें- ऐसा उपदेश दिया गया है और साथ ही, व्रत के बाधक तत्त्वों से बचने का संकेत भी है। व्रती की सुरक्षा के लिए विधेयात्मक और निषेधात्मक दोनों प्रकार के उपाय आवश्यक हैं। जहाँ कहीं भी जिन कारणों से ब्रह्मचर्य में दूषण लगने और स्खलन होने की सम्भावना है, उन-उन कारणों का वर्जन इन भावनाओं में किया गया है। 1. असंसक्त - वसति - भावना भावना का आशय यह है कि ब्रह्मचारी को ऐसे स्थान में नहीं रहना या ठहरना चाहिए, जहाँ स्त्रियाँ उठती - बैठती हों या बातें करती हों, श्रृंगार करती हुई दिखाईं देती हों, सन्निकट वेश्यालय हो। ऐसे स्थान पर रहने से सहज ही विकार - भावनाएँ उद्बुद्ध हो सकती हैं, चित्त चंचल हो सकता है। श्रमण को तो वर्जित है ही, पर ब्रह्मचारी को भी वहाँ नहीं रहना चाहिए। जैसे मुर्गी के बच्चे को बिल्ली का भय बना रहता है, वैसे ही - 207 For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004097
Book TitleJain Darshan me Vyavahar ke Prerak Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages580
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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