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जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व
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इन्सान से भगवान् हो सकता है, पर मानव का अत्यन्त दुर्भाग्य है कि युवावस्था प्रारम्भ होते ही उसमें वासना की आग सुलगने लगती है। वह उस पर नियन्त्रण नहीं कर पाता। वातावरण की वायु से यह आग और भड़क उठती है, जिससे उसके शरीर का तेज और ओज धूमिल होने लगता है। विकास की जो कल्पनाएँ उसके अन्तर्मानस में पनपती हैं, वे कल्पनाएँ वासनाओं की चिनगारी से भस्म हो जाती हैं, वह प्रगति नहीं कर पाता, इसलिए भारत के तत्त्वदर्शी महर्षियों ने ब्रह्मचर्य पर अधिक बल दिया है। उन्होंने कहा है कि ब्रह्मचर्य जीवन को सुन्दर, सुन्दरतर और सुन्दरतम बनाता है।
सूत्रकृतांगसूत्र38 में ब्रह्मचर्य को सभी तपों में श्रेष्ठ माना गया है, उसी प्रकार ब्रह्मचर्य को श्रेष्ठतम व्रत माना है।339 अत्यन्त दुष्कर ब्रह्मचर्य की साधना करने वाले ब्रह्मचारी को तो देव, दानव, गंधर्व, यक्ष, राक्षस, किन्नरादि सभी नमस्कार करते हैं। 40
जैन-परम्परा में ही नहीं, अपितु बौद्ध-परम्परा में भी ब्रह्मचर्य का महत्त्व एक स्वर से स्वीकार किया गया है। धम्मपद 341 में कहा है - अगरू और चन्दन की सुगंध लो बहुत अल्प मात्रा में होती है, पर ब्रह्मचर्य (शील) की ऐसी सुगन्ध है, जो देवताओं के दिल को लुभा देती है। वह सुगन्ध इतनी व्यापक होती है कि मानव-लोक में तो क्या, देवलोक में भी व्याप्त हो जाती है। विसुद्धिमग्ग342 में कहा है - निर्वाण-नगर में प्रवेश करने के लिए ब्रह्मचर्य के समान और कोई द्वार नहीं।
बौद्ध-त्रिपिटक-साहित्य के अनुशीलन में यह भी ज्ञात होता है कि वहाँ पर 'ब्रह्मचर्य' तीन अर्थों में प्रयुक्त हुआ है। दीघनिकाय43 में ब्रह्मचर्य का प्रयोग बुद्ध द्वारा प्रतिपादित 'धर्म–मार्ग' के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है।
538 तवेसु वा उत्तम बंभचेरं - वही 1/6/23 339 एस धम्मे धुवे निअए, सासए जिणदिसिए।
सिद्धा सिज्झन्ति चाणेण सिज्झिस्सन्ति तहावरे। - उत्तराध्ययनसूत्र-16/17 340 वही - 16-16 541 चंदनं तगरं वापि उप्पलं अथ वस्सिकी।
एतेसं गंधज़ातान सीलगंधो अनुत्तरो।। - धम्मपद 4-12 सग्गारोहन सोपानं अंजं सीलसमं कुतो।
द्वारं वा पन निव्वान-नगरस्स पवेसने।। - विसुद्धिमग्ग, परि-1 343 दीघनिकाय, महापरिनिव्वाणसुत्त, पृ. 131
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