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________________ जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व वैदिक-साहित्य के अध्ययन से यह स्पष्ट है कि ब्रह्मचर्याश्रम में तो ब्रह्मचर्य की प्रधानता थी ही, वानप्रस्थाश्रम और संन्यासाश्रम में भी ब्रह्मचर्य को ही महत्त्व दिया गया था, केवल गृहस्थाश्रम में कामवासना की तृप्ति की छूट थी, किन्तु वह छूट बहुत ही सीमित थी, केवल सन्तानोत्पत्ति के लिए | गृहस्थाश्रम में भी अधिक समय तो ब्रह्मचर्य का पालन ही किया जाता था । ब्रह्मचर्य : अपूर्व कला ब्रह्मचर्य जीवन की साधना है । वह एक अपूर्व कला है, जो विचार और व्यवहार को आचार में परिणत करती है। उससे शारीरिक - सौन्दर्य में निखार आता है, मन विशुद्ध बनता है । वह कहने की वस्तु नहीं, आचरण करने की वस्तु है । 198 ब्रह्मचर्य में अमित शक्ति है । वह शक्ति मन में एक अपूर्व क्षमता का संचार करती है। अन्तरात्मा में एक प्रबल प्रेरणा उद्बुद्ध करती है । प्रचण्ड शक्ति व दैदीप्यमान् तेज के कारण जीवन में अपूर्व ज्योति जगमगाने लगती है। ब्रह्मचर्य ऐसी धधकती हुई आग है, जिसमें तपकर आत्मा कुन्दन की तरह दमकने लगती है, वह ऐसी अद्भुत औषध है, जिससे अपूर्व बल प्राप्त होता है। परमात्म-तत्त्व के दर्शन करने के लिए विकारों का दमन करना आवश्यक है । ब्रह्मचर्य जहाँ बाह्य - जगत् में हमारे तन को स्वस्थ रखता है, वहाँ अन्तर्जगत् में विचारों को भी विशुद्ध रखता है । मानव- - जीवन में ब्रह्मचर्य की साधना के बिना सर्वांगीण विकास संभव नहीं होता है। जब मन में वासनाएँ उत्पन्न होती हैं, तब चित्त का विचलन बढ़ जाता है और जीवन का विकास रुक जाता है, इसीलिए कहा गया है कि साधक सुखाभिलाषी होकर काम - भोगों की कामना न करे, प्राप्त भोगों को भी अप्राप्त जैसा कर दे, अर्थात् उपलब्ध भोगों के प्रति भी निःस्पृह रहे । 337 मानव का तन सामान्य तन नहीं है। वह बहुत ही मूल्यवान् है । इस शरीर का यदि सदुपयोग करे, तो वह नर से नारायण बन सकता है, 335 336 337 तैत्तरीय संहिता 3-10-5 शतपथ ब्राह्मण -9-5-4-12 कामी कामे न कामए, लद्धे वावि अलद्ध कण्हुई । - सूत्रकृतांगसूत्र - 1/2/3/6 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004097
Book TitleJain Darshan me Vyavahar ke Prerak Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages580
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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