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जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व
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उत्कृष्ट साधना नहीं कर सकता, क्योंकि विविध विषयों के भोग की आकांक्षा में लगा हुआ मन कभी स्थिर नहीं होता है।
ब्रह्मचर्य : विद्याध्ययन -
ब्रह्मचर्य का तीसरा अर्थ 'विद्याध्ययन' है। अथर्ववेद 31 में लिखा है कि ब्रह्मचर्य से तेज, धृति, साहस और विद्या की उपलब्धि होती है। वह शक्ति का स्रोत है। उससे बल, साहस, निर्भयता, प्रसन्नता और शरीर में अपूर्व तेजस्विता आती है।
__ आर्य-संस्कृति में ब्रह्मचर्य की महिमा अपरंपार है। शक्तिसंपन्न मनोबली साधक को तो जीवनपर्यंत ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए, परन्तु यदि जीवन-पर्यंत पालन करने में समर्थ न हो, तो भी विद्यार्थी जीवन में तो ब्रह्मचर्य का पालन अत्यन्त ही आवश्यक है। जो विद्यार्थी विद्यार्थी जीवन में ब्रह्मचर्य-पालन में शिथिल हो जाता है और येन-केन उपाय से अपनी वासना की पूर्ति करने का प्रयास करता है, उस व्यक्ति की वीर्यशक्ति का नाश हो जाता है और वह धीरे-धीरे कमजोर हो जाता है। विद्यार्थी-जीवन में तो अध्ययन, खेल व अन्य प्रवृत्ति में अधिक शक्ति, एकाग्रता व संकल्पबल की आवश्यकता रहती है, जिसकी प्राप्ति ब्रह्मचर्य से ही संभव है।
वैदिक-परम्परा में आश्रम व्यवस्था को मान्य किया गया है। उसमें सर्वप्रथम आश्रम ब्रह्मचर्याश्रम है। ब्रह्मचर्य की सुदृढ़ नींव पर ही अन्य आश्रम टिके हुए हैं। ब्रह्मचर्य से बुद्धि पूर्ण रूप से निर्मल रहती है, इसलिए वह प्रत्येक विषय को सहज रूप से ग्रहण कर सकती है। वेदों के प्रशस्त भाष्यकार सायण32 ने ब्रह्मचारी शब्द का अर्थ करते हुए लिखा है - वेदात्मक-ब्रह्म का अध्ययन करना जिसका स्वभाव है, वही ब्रह्मचारी है। वेद ब्रह्म हैं। वेदाध्ययन के लिए आचरणीय कर्म ब्रह्मचर्य है। ऋग्वेद 333, अथर्ववेद, तैत्तरीयसंहिता आदि में 'ब्रह्मचर्य' और 'ब्रह्मचारी' शब्द प्राप्त होते हैं। शतपथ ब्राह्मण ग्रन्थों में भी ब्रह्मचर्य शब्द की व्याख्या है।
ब्रह्मचर्येण वै विद्या। - अथर्ववेद- 15, 5-17 अथर्ववेद - 11-5-1, 11-5-16 (सायणभाष्य) ऋग्वेद - 10-109-5 अथर्ववेद - 5/16 15, 11-5-1-26
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