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जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व
कहते हैं। यह ओजस् बल और शक्तियुक्त है। शारंगधर का कथन है329 - ओजस् सम्पूर्ण शरीर में रहता है। वह अत्यन्त स्निग्ध, शीतल, स्थिर, श्वेत, सौम्य तथा शरीर को बल तथा पुष्टि प्रदान करने वाला है, परन्तु अब्रह्म के कारण क्षणमात्र में वह नष्ट हो जाता है। जैसे सम्राट बहुत सुन्दर उद्यान लगवाए। सुन्दर-सुन्दर फूल चुनवाए, उन हजारों फूलों से इत्र बनवाए, उस इत्र की मात्र दो-चार बूंद उपयोग में ले और बाकी इत्र नाली में फेंक दे, उसे मूर्खता ही कहेंगे।
वीर्य के हास से ज्ञान-तन्तु दुर्बल हो जाते हैं। वीर्य का नाश मस्तिष्क का नाश है, क्योंकि वीर्य और मस्तिष्क -दोनों एक ही पदार्थ से निर्मित हैं। दोनों के निर्माता रासायनिक-तत्त्व एक से हैं। शारीरिक और मानसिक-परिश्रम करने से, अथवा निरन्तर किसी कार्य में लगे रहने से वीर्य के जो अणु हैं, वे मस्तिष्क में व्यय हो जाते हैं। जिसका वीर्य आवश्यकता से अधिक मात्रा में व्यय हो जाता है, उसकी मस्तिष्कीय और चिन्तन-शक्ति दुर्बल हो जाती है।
ब्रह्मचर्य : आत्मरमण -
ब्रह्मचर्य का दूसरा अर्थ 'आत्मरमण' है। ब्रह्मचारी साधक कामवासना से अपने आप को मुक्त रखता है। उसका मन निर्विकारी होता है। वह वासना का त्याग करता है और वासना को उद्दीप्त करने वाले साधनों का भी त्याग करता है। वासना से आत्मा में मलिनता आती है और ब्रह्म का अपूर्व तेज उससे धूमिल हो जाता है। ब्रह्मचारी साधक इन्द्रियों के विषयभूत पुद्गलों के परिणमन को जैसा है, वैसा-जानकर, अपनी आत्मा को उपशान्त कर, तृष्णा रहित हो विहार करे।30 साधक आत्मा को विकारी भावों से हटाकर अपने-आपको शुद्ध परिणति में केन्द्रित करता है, या ब्रह्मचर्य की जो साधना करता है, वही परमात्म-भाव की साधना करता है। जिस साधक का मन विषय-वासना के बीहड़ वनों में भटकता रहता है, वह साधक कभी भी अन्तर्मुखी नहीं बनता है और अन्तर्मुखी या आत्मकेन्द्रित हुए बिना ब्रह्मचर्य की सही साधना नहीं हो सकती है। जिसका मन बहुविध भोग के विषयों में फंसा हुआ है, वह ब्रह्मचर्य की
329 ओजः सर्वशरीरस्यं स्निग्धं शीत स्थिरं सितम्।
सोमात्मकं शरीरस्य बल-पुष्टिकरं मतम्।। - शिवसंहिता 330 दशवैकालिकसूत्र - 8/59
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