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जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व
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वीर्यरक्षण -
महर्षि पतंजलि ने 'योगदर्शन' में ब्रह्मचर्य की परिभाषा करते हुए लिखा है – 'ब्रह्मचर्य प्रतिष्ठायां वीर्य लाभः',126 ब्रह्मचर्य की पूर्ण साधना कर लेने पर अपूर्व मानसिक-शक्ति और शरीर–बल प्राप्त होता है। 'योगदर्शन' के भाष्यकार और टीकाकारों ने 'वीर्य' शब्द का अर्थ 'शक्ति
और बल' किया है। जब तक व्यक्ति अपने वीर्य और शक्ति का रक्षण नहीं करता, तब तक शरीर ओजस्वी और तेजस्वी नहीं बनता है। शरीर-विज्ञान की दृष्टि से शारीरिक-शक्ति का केन्द्र वीर्य और शुक्र हैं। शरीर के इस महत्त्वपूर्ण अंश को अधोमुखी होकर बहने से ऊर्ध्वमुखी बनाना ब्रह्मचर्य है। वीर्य के विनाश से जीवन का सर्वतोमुखी पतन होता है।
वीर्य-निर्माण -
भारतीय आयुर्वेद-शास्त्र में तथा पाश्चात्य-चिन्तकों ने वीर्य और उसकी उत्पत्ति के सम्बन्ध में गहराई से अनुचिन्तन किया है। वैद्यक-शास्त्र के आद्य प्रणेता आचार्य चरक ने अपने ग्रन्थ 'चरक संहिता' में लिखा है कि हम जो भोजन करते हैं, पाचन क्रिया के क्रम में उसका सर्वप्रथम रस बनता है। रस से रक्त, फिर ‘मांस, उसके बाद मेद, तत्पश्चात अस्थियाँ, अस्थियों से मज्जा, मज्जा से अन्त में शुक्र अर्थात् वीर्य बनता है।327
प्रत्येक के बनने में सात-सात दिन लगते हैं। आज भोजन किया, सात दिन बाद रस बनेगा, चौदह दिन बाद रक्त, इक्कीस दिन बाद मांस, अट्ठाईस दिन बाद मेद, पैंतीस दिन बाद अस्थियाँ, बयालीस दिन बाद मज्जा और उनपचासवें दिन कहीं जाकर वीर्य का निर्माण होता है, जोकि हमारे जीवन की अमूल्य शक्ति है, वह भी सिर्फ डेढ़ तोला ही बनता है। भोजन को पचाते-पचाते उनपचास दिनों के बाद जो शक्ति हमने प्राप्त की, वह एक बार के संभोग में नष्ट हो जाती है। महर्षि सुश्रुत328 का अभिमत है – रस से शुक्र तक सप्तधातुओं के परम तेज भाग को ओजस्
326 पातंजलि योगदर्शन - 2/38 327 1) रसात् रक्तं ततो मांसं, मांसात् भेदो प्रजायते।
भेदसोऽस्थि ततो मज्जा, मज्जायाः शुक्रसंभव ।। - चरकसंहिता, अ.3 श्लोक 6 2) समयसार, गाथा-179 1028 रसादिना शुक्रांतानां धातुनां यत्परंतेजस्तत् खल्वोजस्तदेव बलम्। - सूत्रस्थान, 15/19
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