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जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व
दीघनिकाय के पोट्टपाद में उसका अर्थ 'बौद्ध धर्म में निवास'344 है, जिससे निर्वाण की प्राप्ति होती है। ब्रह्मचर्य का तीसरा अर्थ 'मैथुन-विरमण 345 है।
आत्मा अनन्तकाल से अपने शुद्ध स्वरूप को विस्मृत कर चुकी है और जो उसका निज स्वभाव नहीं है, उसे वह अपना स्वभाव मान बैठी है। अनन्तकाल से विकार और वासनाएँ आत्मा के साथ हैं, पर वह आत्मा का स्वभाव नहीं है। पानी स्वभाव से शीतल है, अग्नि के संस्पर्श से वह उष्ण हो जाता है, पर उष्णता उसका स्वभाव नहीं है। आग का स्वभाव उष्ण है, मिर्ची का स्वभाव तीखापन है, मिश्री का स्वभाव मधुरता है, वैसे ही आत्मा का स्वभाव विकाररहित अवस्था या स्वभावदशा है। विभाव कर्मों का स्वभाव है, इसलिए वह औपाधिक-भाव है। उस विभाव से हटकर जिन-स्वभाव में रमण करना ही ब्रह्मचर्य है।
जैन-परम्परा में 'ब्रह्मचर्य' शब्द व्यापक अर्थ को लिए हुए है। आचारांग का अपर नाम भी 'ब्रह्मचर्याध्ययन 346 है। ब्रह्मचर्य-अध्ययन में प्रवचन का सार है और मोक्ष का उपाय प्रतिपादित है। मोक्ष प्राप्ति के लिए जितने भी आवश्यक सद्गुण और आचरण करने योग्य बातें हैं, वे सभी ब्रह्मचर्य में आ गई।347 ब्रह्मचर्य में सारे मूलगुणों व उत्तरगुणों का समावेश है।48 आचार्य भद्रबाहुजी49 का मन्तव्य है कि भाव-ब्रह्म दो प्रकार का है - एक, श्रमण का 'बस्ती संयम' और द्वितीय, श्रमण का 'सम्पूर्ण संयम' | श्रमणधर्म ग्रहण करते समय मुमुक्षु साधक महाव्रतों को स्वीकार करता है, उसमें चतुर्थ महाव्रत ब्रह्मचर्य है।350 वह देव-सम्बन्धी, मनुष्य-सम्बन्धी या तिर्यंच-सम्बन्धी,351 सभी प्रकार के मैथुन का परित्याग करता है, मन, वचन
और काया से न स्वयं मैथुन का सेवन करता है, न दूसरों से करवाता है, न मैथुन–सेवन करने वालों का अनुमोदन करता है।
344 दीघनिकाय, पोट्ठपाद, पृ. 75 343 विसुद्धिमग्ग, प्रथम भाग, पृ. 195 346 आचारांगनियुक्ति, गाथा-11 347 वही, गाथा 30 348 व्ही, गाथा 30 की वृत्ति 349 व्ही, गाथा 28
क) दशवैकालिकसूत्र - 4/4
ख) आचारांग श्रुतस्कंध - 2,15 351 क) दशवैकालिकसूत्र-4/4
ख) समवायांगसूत्र - 5
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